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भारतीय पुरालिपि शास्त्र
पश्चगामी हैं । इसमें पुरालिपि की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण अक्षरों के रूप पुरागत हैं । कैलाश नाथ मंदिर का निर्माण फ्लीट के मत से 347 परमेश्वर के पुत्र नरसिंह द्वितीय ने करवाया था। दूसरी ओर कशाकूडि ताम्रपट्ट (फल. VIII, स्त. XIII ) हैं । इन पर नंदिवर्मन के समय में लेख खोदे गये थे । नंदिवर्मन नरसिंह द्वितीय के पुत्र महेन्द्र तृतीय का उत्तराधिकारी था । इसने पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय (ई. 733-749 ) से युद्ध किया था 348 । इन पट्टों की लिपि कूरमपट्टों से बहुत मिलती-जुलती है और उसमें कुछ पुरागत रूपों के साथ-साथ अधिक विकसित रूप भी हैं
ग्रंथ - लिपि के इस द्वितीय विभेद की कतिपय महत्त्वपूर्ण नवीनताओं का उल्लेख नीचे दिया जा रहा है। ये नवीनताएं या तो हमेशा मिलती हैं या यदाकदा । 1. अ, आ, क, और र ( फल. VII, 1. 2. 8, 33, XXIII, XXIV; फल. VIII, 1. 2. 11. 36, XIII ) तथा उ और ऊ की मात्राओं में प्राचीन हुक से एक दूसरी खड़ी रेखा का विकास । इं. ऐ. IX, 100; 102 की प्रतिकृतियों के संक्रान्तिकालीन रूपों से तुलना कीजिए ।
2. इ की एक बिंदी का ऊपरी भंग वाली रेखा से जुड़ना ( फल. VII, 3, XXIII, XXIV; फल. VIII, 3, XIII, a, b ) ।
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3. ए के सिरे का खुलना ( फल. VII, 5, XXIV) किंतु स्तं. XXIII और फल. VIII, 8, XIII में इसी अक्षर का ऊपरी हिस्सा बंद है ।
4. ख के पैर में बाईं ओर एक फंदे का निकलना और अक्षर के दाएं भाग का खुलना (फल. VII, 9, XXIII) जैसा तेलुगू- कन्नड़ लिपि में होता है । देखि ऊपर 29, आ 2 ।
5. औरश के बाएं हाथ की रेखाओं में शोशे का ऊपर को घूमना ( फल. VII, 10, 36, XXIV; फल. VIII, 13, 39 XIII; फल. VII, स्त. XXIII में ऐसा नहीं होता) ।
6. छ के फंदों का ऊपर की ओर खुलना ( फल. VIII, 17, XIII) संभवतः कूरम पट्टों में पहले पट्ट की पांचवीं पंक्ति के अस्पष्ट छ में भी ऐसा ही हुआ है।
7. ज की खड़ी रेखा का अक्षर के ऊपरी डंडे के दायें किनारे को स्थानां
347. फ्लीट, वही, पृ. 329 ।
348. फ्लीट, वही, पृ. 323 तथा आगे ।
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