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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र कलिंगपत्तनम् नाम से प्रसिद्ध है जो गंजाम जिले में है। ये प्रलेख गांगेय संवत् 87 से मिलते हैं। इसकी शुरूआत कब से हुई इसका पता नहीं। पर फ्लीट ने दिखलाया है कि गंग दानपत्र संभवतः ईसा की सातवीं शती के हैं । 334
गांगेय संवत् 183 तक के इन दानपत्रों के अक्षर कुछ तो मध्य भारतीय लिपि से मिलते हैं (दे. ऊपर 28, आ) और कुछ पश्चिमी विभेद से जिसमें अजंता अभिलेखों सरीखी औ की मात्रा मिलती है (ऊपर, 28, अ)। इनमें विलक्षण रूप बहुत कम ही हैं। इनमें दूसरे प्रकार की कलिंग लिपि का एक नमूना फलक VII के स्त. XIX में दिया गया है जो गांगेय संवत् 148 के चिकाकोल दानपत्र से लिया गया है। इनमें ग्रंथ शैली के आ (2, XIX) और ग (10, XIX) और श (36, XIX) के रूप ही ऐसे हैं कि जो वलभी के क्रमशः इन अक्षरों से काफी भिन्न हैं। इनमें बाईं ओर को भंग है। गांगेय संवत् 87 के अच्युत्पुरम् पट्टों की लिपि335 में कोणीय रूप मिलते हैं और अक्षरों के सिरों पर स्याही से भरे पिटक । यह मध्य भारतीय लिपि से बहुत मिलती-जुलती है । किन्तु इसका न आधुनिक नागरी की तरह का है। गांगेय संवत 128 के चिकाकोल के पट्टों की लिपि336 भी सामान्यतया उसी प्रकार की है। पर उनमें उत्तरी और पश्चिमी का सामान्य फंदेदार म और पुरानी ग्रंथ लिपि का फंदेदार त मिलता है (22,XX तथा आगे)। अंतिम बात यह है कि संवत 183 के चिकाकोल के पट्ट337 फलक VII के स्त. X की लिपि के नजदीक हैं । किंतु इनका न बाद की नागरी का है और आ की मात्रा अधिकांशतया पंक्ति के ऊपर लगती है जैसा कि अनेक उत्तरी और ग्रंथ लिपि के 7वीं-8वीं शती के प्रलेखों में होता है।
गांगेय संवत् की तीसरी और चौथी शती के अभिलेखों और एक बाद के अतिथिक अभिलेख में अक्षरों की मिलावट और अधिक है। एक ही अक्षर प्राय: कई प्रकार से लिखे जाते हैं। इनके रूपों में भी काफी विभिन्नता रहती है । फलक VIII के स्त. X में, जो गांगेय संवत् 51 अर्थात् 251338 के चिका
334. इं. ऐ. XIII, 274; XVI, 133. 335. ए. ई. III, 128. 336. इं. ऐ. XIII, 120; मिला. XVI, पृ. 131 तथा आगे। 337. ए. ई. III, 132. 338. संवत्सर के अनन्तर सितद्वय शब्द संभवतः भूल से छूट गया है ।
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