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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
रूपान्तर है । इन दो चिह्नों के होने से सिद्ध होता है कि सातवीं शती में ही कन्नड़ में संयुक्ताक्षर आ चुके थे ।
इ. पुरानी कन्नड़ लिपि
तेलुगु - कन्नड़ लिपि के तीसरे और अंतिम विभेद को बर्नेल 'संक्रांतिकालीन' और फ्लीट पुरानी 'कन्नड़' कहता है । फ्लीट द्वारा सुझाया नाम अधिक उपयुक्त है । पर यह विभेद आधुनिक कन्नड़-तेलुगू लिपियों से बहुत भिन्न नहीं है । पूरब में सबसे पहले यह लिपि 11 वीं शती के वेंगी के अभिलेखों में मिलती है । पश्चिम में इससे कुछ पहले सन् 978 ई. के एक गंग अभिलेख और इसके कुछ बाद के एक चालुक्य अभिलेख में मिलती है । इसकी कुछ विशेषताएं, जैसे म के फंदे और व के सिर का खुलना, उपरि उल्लिखित ध्रुव द्वितीय के बड़ोदा ताम्रपट्टों पर उसके हस्ताक्षर में मिलती है । इस लिपि के नमूने 31 फल VIII में हैं । इनमें स्त. VI और VII के नमूने 11वीं शती के, स्त. VIII के 12वीं शती के और स्त. IX के नमूने ( हुल्श के मत से तेलुगू ) 14वीं शती के हैं । इनमें क्रमिक विकास स्पष्ट दीखता है ।
पुरानी कन्नड़ की एक खास विशेषता यह है कि इसमें सभी मात्रिकाओं के ऊपर कोण बनते हैं । इन मात्रिकाओं में ऊपर स्वर चिह्न नहीं लगते । ये कोण जो स्त. VI में आधुनिक तेलुगू से और स्त. VII और VIII में आधुनिक कन्नड़ से मिलते-जुलते हैं संभवतः कीलों को ही घसीट कर लिखने से बने हैं । इनकी ईजाद संभवतः इस वजह से हुई क्योंकि स्टाइलस से लिखने में कीलें बनाना उपयुक्त नहीं होता । छठी शती से ये कोण दूसरे जिलों के इक्के दुक्के अभिलेखों में जैसे सन् 559-60 के गुहसेन के दानपत्रों (फल. VII, स्त. IV) और रवि कीर्ति की ऐहोळ प्रशस्ति 332 में प्रायः और कभी - कभी कीलों के साथ मिलने लगते हैं । किन्तु ये इसी लिपि की विशेषता हैं ।
330. बर्गेस और फ्लीट, पालि, संस्कृत ऐंड ओल्ड कनड़ीज इंस्क्रिप्शंस, सं. 211, 214; और देखि. गंग अभिलेख, इं. ऐ. VI, 102.
331. मिला. प्रतिकृतियों से । इं. ऐ. IX, 74, XIV, 56, ए. ई. III, 26, 88, 194, 228; ए. क. III, 116, 121; व. आ. स. रि. बे. इं., सं. 10, 100; और ज. रा. एं. सो. 1891; 135 ( कृष्णा वर्णमाला का मूल जो पुरागत और पश्चगामी है : अ, क, र, ल ।
332. इं. ऐ. VIII, 241; ए. इं. VI, 6.
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