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तेलुगू-कन्नड़ लिपि होता है कि सन् 578 और 660 के बीच और संभवतः इससे भी पहले मध्य कन्नड़ लिपि के गोलाईदार रूप विद्यमान थे, किन्तु या तो उन्होंने पुराने रूपों का पूरी तरह स्थान नहीं ले लिया था या तब तक उन्हें अभिलेखों में इस्तेमाल के योग्य नहीं माना गया था। कभी-कभी गलती से लिपिक वर्ग सरकारी प्रलेखों में इनका इस्तेमाल अवश्य कर देता था। (मिला. ऊपर 3, पृष्ठ 20) ।
अन्य अक्षर-रूपों में निम्नलिखित पर ध्यान दें : ___ 1. ण--(फल. VII, 21, XII-XVII) फंदेदार नहीं होता किन्तु देखने में ऐसा लगता है कि स्त. I और उसके आगे के स्तंभों के वैसे ही किसी फंदेदार रूप से घसीट कर लिखने की वजह से निकला होगा।
2. त--सं. 22, XIII में बिना फंदों का पश्चिमी अभिलेखों का पुराना रूप सुरक्षित है, पर स्त. XII, XIV, XVII में स्त. XX-XXIII का घसीट विकसित रूप है । यह रूप इस काल के कदंब और चालुक्य अभिलेखों में दुर्लभ है।
3. द--(24, XIV, XVII) का दुमदमर रूप पश्चिमी ड (19, IV-IX) से हूबहू मिलता है।
4. न-कभी-कभी फंदेदार होता है (26, XIII), पर उससे अधिक प्रचलित रूप बिना फंदे वाला है (26, XII, XIV-XVII) । बिना फंदे वाला रूप स्पष्ट ही फंदे वाले रूप से निकला है।
____5. य--अति अपवादभूत फंदेदार य (या, 45-XIV में) काफी पुराना उत्तरी रूप ही है।
6. स्वरमात्राएँ : (क) पू में (27, XIII) ऊ की मात्रा यू (32, VI), च (13, IV) आदि की ऊ की मात्रा को ही घसीट कर लिखने से बनी है; (ख) क (8, XII, XVII; 41, XIV) की ऋ की मात्रा उत्तरी ऋ की मात्रा से मिलती है । इ. ऐ. ए. 6, 24 के मृगेश में तो एक बार उत्तरी ऋ प्रत्यक्ष भी मिलती है । परन्तु संभवतः यह क से पूर्व एक अलग अर्धवृत्त जैसे ऋ के किसी रूप से स्वतंत्र रूप में ही निकला है जो अप्रचलित नहीं था; (ग) क्ल (4.2, XIV) का ल अति दुर्लभ है । यह उत्तरी ल (फल. VI, 35, XVII), से भिन्न है। किन्तु यह कै ब्रिज के हस्तलिखित ग्रंथ के 'लु'कार से मिलता है । यह ल को घसीट कर लिखने से बना एक रूप है, (घ) ए (णे, 21, XII), ऐ (चै, 13, XII
और (वै, 35, XIII) और ओ और औ (थौ, 23, XII) की मात्राएं व्यंजन के नीचे लगती हैं अपवाद ले (दे. ले, 34,XII; और लो, 34, XIII, XVII)
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