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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र XII और XIII के अक्षरों में पर्याप्त विभिन्नता है । ये दोनों ही वर्णमालाएं कदंब मृगेशवर्मन के ताम्रपट्टों से ली गयी हैं और इनकी तिथियों में केवल 5 वर्ष का अंतर है। फिर इतने अल्प काल में ही इतना अंतर कैसे हो गया, इसका खुलासा इस अनुमान से किया जा सकता है कि स्त. XIII के अक्षरों से जिनसे प्रायः सभी कदंब अभिलेखों के अक्षर मिलते-जुलते हैं रोशनाई के अक्षरों का प्रारंभ होता है, जब कि स्त. XII के अक्षर स्टाइलस के हैं। इस अनुमान का आधार स्त. XII के अक्षरों का पतला होना और स्त. XIII के अक्षरों का इनसे काफी मोटा होना है । स्त. XIII के अक्षरों के सिरों पर कीलें और भरे हुए वर्ग भी हैं । (मिला. ऊपर 28, आ )।
इस काल के प्राक्तर प्रलेखों के अक्षर बहुत-कुछ फल. III के आंध्रअभिलेखों के तथाकथित 'गुफा-अक्षरों जैसे हैं। शालंकायन दानपत्र और कदंब काकुस्थवर्मन, शान्तिवर्मन, मृगेशवर्मन, और रविवर्मन के दानपत्रों के अक्षरों में उत्तर कालीन गोले रूपों के चिह्न कम हैं और सो भी सतत नहीं मिलते हैं । ये रूप बाद की लिपि की विशेषताओं में हैं। यद्यपि स्त. XII के अ और र के रूप काफी विकसित हैं, पर आ का रूप पुराना है और इनकी प्रतिकृति में कोणीय र भी मिलता है जिस में ऊपर को उठती अनतिदीर्घ लकीर है। अंतिम कदंब राजा हरिवर्मन और चालुक्यों के सन् 578 और 660 ई. के बीच के दानपत्रों में अ, आ, क और र के रूप ऐसे हैं जो बाद की विशेषता माने जाते हैं। ये रूप दुर्लभ तो नहीं हैं, पर सतत भी नहीं हैं। इसी प्रकार स्त. XVI में जो चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन प्रथम और मङ्गलेश के बादामी के अभिलेख के अक्षरों से बना है क अक्षर बाईं ओर को बंद है। किन्तु यह रूप वहाँ एक बार ही इस्तेमाल में आया है। मङ्गलेश के ताम्रपट्टों पर इसका इस्तेमाल नहीं होता, न उसके उत्तराधिकारी पुलिकेशिन द्वितीय के हैदराबाद ताम्रपट्टों पर ही इसका इस्तेमाल हुआ है 1321 ऐसा ही क और 33 के स्त. xv का बंद र पुलकेशिन द्वितीय के नेरूर के पट्टों322 पर मिलता है । पुलकेशिन के समय के ऐहोळ अभिलेख23 में एकमात्र पुराने क और र तथा कभी-कभी स्त. XV का उत्तरकालीन अ मिलते हैं । इस अस्थिरता से अनुमान
321. ई. ऐ. VI, 72 322. इ. ए. VIII, 44 323. इ. ऐ. VIII, 241; ए. ई. VI, 6 के फलक देखिए।
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