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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि पूर्वी भारत तक ही सीमित थी। निश्चय ही नागरी से इसका कोई संबंध नहीं, किंतु जैसा कि बेंडेल ने इसका सजगता से विवरण देते हुए बतलाया है यह ब्राह्मी के किसी प्राचीन रूप से सीधे निकली है। अ, आ, क, ञ, र, और संभवत झ में भी नीचे भंग मालूम पड़ता है । इसकी यह विशिष्टता है। इसकी एक दूसरी विशिष्टता बेंडेल ने ए में भी देखी है (मिला. फल. VIII, 8, VIII) । इसमें र ऋ में भी कोई फर्क नहीं है। इनसे प्रतीत होता है कि वर्तमान लिपि दक्षिणी लिपियों के वर्ग की है, क्योंकि ये बातें इस वर्ग की विशेषताएं हैं (मिला, फल. III, स्त. X-XX और फल. VII, VIII) । ख, ग, श के नुकीले रूप भी दक्षिणी लिपियों में मिलते हैं (दे. फल. III, 8, VII; VII, 9, XI, XIV; VII, 11, XVII; 36, IV, XVI, XX,)। ण, त, न के रूप इसका संबंध दक्षिण की अपेक्षा दक्षिण-पश्चिम से बतलाते हैं (मिला. फल. VII, स्त. I, II, आदि) । केवल फंदेदार स के बारे में ही उत्तरी (गुप्त) प्रभाव की कल्पना की जा सकती सकती है। किंतु इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह एकदम स्वतंत्र रचना हो । बेंडेल ने इंडियन ऐंटिक्वेरी, XIX, पृष्ठ 77 तथा आगे में इसी लिपि के एक अभिलेख की चर्चा की है जिसमें अक्षरों के सिर पर शर के स्थान पर कीलें बनती हैं।
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