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पूर्वी नागरी
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सं. 3 के चंदेल अभिलेख में मिलती है। इस अंतिम रूप का संबंध उस रूप से है जिसमें अक्षरों की शिरोरेखाएं मोटी और दोनों किनारों पर गोलाईदार होती हैं। अर्धवृत्तों वाला रूप उसकी रूपरेखा ही देता है। मोटी रेखाओं वाला रूप अलंकृत शैली की हस्तलिखित प्रतियों में दुर्लभ नहीं है । बेंडेल के कैटलाग आफ संस्कृत बुद्धिस्ट मैनुस्कृप्ट्स फ्राम नेपाल, फल. 2 सं. 1. 2 और फल. VI, स्त. XIV (विशेषकर पंक्ति सं. 5, 7, 15, 30, 37, 49) में ऐसे रूप हैं।
असामान्य अकेले अक्षरों में जिन्हें आधुनिक बंगला में ग्रहण नहीं किया गया है, निम्नलिखित विशेष ध्यान देने योग्य हैं : ___1. इ के चिह्न । फल. V, 3, XVIII, और VI, 3, X के रूप फल. IV, 3, IX आदि के प्राचीन इ के रूप के ही विकास हैं जो घसीट लेखन की वजह से बने हैं। किंतु फल. V, 3,4, XIX के इ और ईं के रूप दक्षिणी प्रतीत होते हैं; मिला. फल. VII, 3, IV-VII
2. फल. V, 20, XIX का 2 का रूप विचित्र-सा है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन गोले ट पर नेपाली हुक बनाकर और उसके किनारे पर एक शोशा लगाकर इसके असामान्य विकास के कारण यह रूप बना है। ट का प्राचीन रूप बाईं ओर के निचले भंग के रूप में पहचाना जा सकता है। मिला. स्त. XVIII और कैंब्रिज हस्तलिखित ग्रंथ सं. 1693 (बेंडेल, वही, फल. 4) के ट से ।
3. फल. V, 29, XIX के न में फंदे और खड़ी रेखा को जोड़ने वाली कोई लकीर नहीं है । इस विकास का कारण घसीटकर लिखने की बलवती इच्छा ही है । वैद्यदेव अभिलेख के कई अक्षरों में जैसे अ, आ, श और संयुक्ताक्षर त्कृ (फल. V, 47, XIX) में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। ____ 4. उ की त्रिभुजाकार मात्रा, जैसे कु में (फल. V, 10, XIX) पुराने कीलनुमा रूप की रूपरेखा दीखती है जो थु (फल. V, 26, XVIII) और षु (फल. VI, 45, II) मिलता है। त्रिभुजाकार मात्रा लक्ष्मणसेन के तर्पन दिधी दानपत्र और अन्य पूर्वी अभिलेखों में भी मिलती है।
5. वं (फल. V, 38, XIX) और कं (फल VI, 15, X) के अनुस्वार पंक्ति पर लगे हैं जैसा कि प्राचीन कन्नड़ (दे. आगे 29, इ. 5) और आधुनिक ग्रंथ लिपि में होता है। विराम चिह्न रेखा के नीचे लगता है।
'6. फल. V, 9, XVIII के ओम् में हमें आधुनिक अनुनासिक का प्राचीनतम रूप मिलता है। यहाँ अधिक प्रचलित बिंदी के स्थान पर एक वृत्त है।
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