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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र और स 8-10 वीं शती के फलक IV, V, की लिपियों में बार-बार आते हैं। इसका ख वैसा ही है जैसा बावर की हस्तलिखित लिपि का (फल, VI, 16, I) और थ फल. V, 26, IX सा है। दोनों दाईं ओर को खुलते हैं। और अंत में, ग और घ-जिनकी खड़ी रेखाएं पंक्ति के ऊपर दाएं को हैं—के पूर्व रूप 9-10वीं शती में मिल जाते हैं जिनमें सींग की तरह का एक शैल प्रबर्ध होता है (फल. V, 12, 24, II-IV, VI पर 24, अ, I से भी तुलना कीजिए)। यहाँ तक कि व से मिलता-जुलता र (फल. V, 36, XIX; VI, 41, 49,X) भी अपने अंत की कील के असामान्य विकास के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। इसकी बहुत-कुछ समानता फल. V, 36, XIII, XIV के पश्चिमी और मध्य भारत के रूपों से है। बाईं ओर को खुले ए
और ऐ और ञ्च (फल. V, 19, XVIII) और ज्ञ (फल, VI, 24, X) में विचित्र म एकदम स्थानीय रूप प्रतीत होते हैं। त (फल. V, 25, XVIII, XIX; VI, 30, X) के बारे में भी यही सच है। त का रूप शारदा और दूसरी लिपियों के त के रूपों से बहुत भिन्न नहीं हैं।
पूर्व बंगला की सबसे महत्त्वपूर्ण और तत्काल ध्यान आकर्षित करने वाली विशिष्टताओं में इसके अक्षरों में छोटे त्रिभुज जिनकी, नीचे को भुजाएं गोलाईदार होती हैं और नेपाली हुक हैं। ये हुक अनेक अक्षरों में उनके सिरों पर बाई ओर को लगते हैं । आधुनिक बंगला में इन विशिष्टताओं का परित्याग कर दिया गया है । क्षि (फल. V, 47, XVIII) और फल. V स्त. XIX के अनेक अक्षरों में त्रिभुज वर्तमान है। फल. V, 25 और 43, XVIII275 के क और त में हुक है। यदि लक्ष्मण सेन के तर्पन-दिघी अभिलेख की ओर ध्यान दें तो पायेंगे कि इसमें एक ही अक्षर में कभी त्रिभुज मिलता है और कभी हुक । इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'नेपाली हुक' त्रिभुज को ही घसीटदार लिखने से बनता है। यह त्रिभुज भी शिरोरेखा के नीचे अर्ध-वृत्त का ही परिवर्तन रूप है। अर्घवृत्त के साथ शिरोरेखा यदा-कदा उत्तर और मध्यभारत के अलंकृत शैली के अभिलेखों में, जैसे विनायकपाल पट्ट (फल. IV, स्तं. XXIII में ऐसे अक्षर नहीं दिये हैं) और कनिंघम की आर्कलाजिकल रिपोर्ट जिल्द 10, फल. 33,
275. गया अभिलेख, में त्रिभुज और हुक दोनों मिलते हैं, इं. ऐ. X, 342. 276. ज. ए. सो. ब., XLI, फल. 1, 2.
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