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नागरी लिपि
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लगती है । फिर, खासकर पत्थरों पर खुदे अभिलेखों में उसे अलंकृत करते हैं ( देखि. उदाहरणार्थं फल. IV, स्त. XIII-XVIII ) । इ और ई की मात्राएं अपेक्षाकृत दुर्लभ ही अलंकृत होती हैं ।
2. इ और ई की मात्राओं के भंगों की दुमें नियमित रूप से नीचे को खिंचती हैं । ये मात्रिका के क्रमशः बाएं और दायें लगती हैं। सिरों के भंगों के भेद मिट जाते हैं । इन्हीं रूपों से आगे चलकर देवनागरी की इ और ई की मात्राएं निकलती हैं ।
3. ऊ की मात्रा के लिए प्रायः इस काल में ऊ का जो चिह्न है वही लगाते हैं ( फल. IV, 30, XII, XIV, XVI, XX; VI, 44, VI ) किंतु एक पुराना रूप भी, उदाहरणार्थं पू ( फल. IV, 27, VI) में प्रचलित है जो की मात्रा के आधुनिक रूप का जनक प्रतीत होता है । यह पहले से ही पश्चिम की ताड़पत्रों की पुस्तकों में मिलता है ( फल. VI, 35, XVI ) ।
4. सातवीं शती से 260 - सर्वप्रथम हर्ष के बांसखेरा ताम्रपट्टों पर - जिह्वामूलीय के लिए यदा-कदा एक घसीट चिह्न बनाते हैं जिसमें क की कील के नीचे एक फंदा होता है । ( फल. V, 47, III ) ।
5. सातवीं शती से उपध्मानीय के लिए कभी-कभी एक ऊपर खुला भंग बनाते हैं । इसके किनारे मरोड़दार होते हैं और कभी-कभी इसके मध्य एक बिंदी भी होती है । यह चिह्न मात्रिका के बाएं लगता है ( फल. IV, 46, XXIII; V, 48, VII ) | यह फलक VII, 46, IV जैसे किसी रूप से निकला प्रतीत होता है ।
6. प्राचीनतर अभिलेखों में विराम को अभी तक प्रायः स्वरहीन व्यंजन के ऊपर रखते हैं जिसके लिए पूर्ण रूप ( final form ) ही इस्तेमाल में आता है। इसमें एक दुम लग जाती है जो मात्रिका के दायें नीचे को खिंचती है (दे. उदा. फल. IV, 22, XIV) । किन्तु इससे अधिक प्रचलित तरीका उसे व्यंजन के नीचे रखना है । पहले से ही संक्रातिकालीन रूपों वाले अभिलेखों में यह इसी स्थान पर मिलती है ( फल. IV, 22, XI)241 ।
260. मिला. झालरापाटण अभिलेख की प्रतिकृति, इं. ऐ. V, 180, और भी देखि. इं. ऐ. XIII, 162.
261 9वीं शती से यह रूप स्थिर हो जाता है ।
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