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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
24. भ का वामांग अधिकांश में एक अंतर्मुखी कील था जिसकी नोक दाएं को थी। अब यह प्रायः एक त्रिभुज में परिणन हो जाता है जो सिरे पर खुलता है। इसी से मूल खड़ी रेखा का निचला हिस्सा झूलता है (फल. IV, 30, XIX आदि; V, 33, II, आदि)। आधुनिक देवनागरी भ 12वीं शती में प्रकट होता है (फल. V, 33, XV आदि) यह रूप कील वाले रूप से निकला प्रतीत होता है। इसमें कील के स्थान पर बाद में एक शोशा लगने लगा।
25. आठवीं शती से घसीट लेखन के कारण म में बाईं ओर एक घसीट फंदा बनने लगता है (फल. IV, 31, XX, XIX)। हस्तलिखित पुस्तकों में इसमें रोशनाई भर देते हैं (फल. VI, 39, XV-XVII)।
26. हस्तलिखित ग्रंथों और उदयपुर के अभिलेख (ऊपर टिप्पणी 212) और नेपाल के कतिपय अभिलेखों (टिप्पणी 220) को छोड़ कर अधिकांश अभिलेखों में य का एक मात्र फंदेदार या द्विपक्षीय रूप ही प्राप्त होता है। पिछला रूप कुषान काल से ही अभिलेखों में मिलने लगता है ।257 यह रूप फंदेदार रूप से ही निकला है ।258 सातवीं शती के नेपाली अभिलेखों में जिनमें ष का पूर्वी रूप मिलता है259 एक त्रिपक्षीय य भी मिलता है जिसमें पहली ऊपरी लकीर के सिरे पर एक छोटा-सा वृत्त मिलता है (फल. IV, 32, XVII)। उदयपुर अभिलेख में सामान्य त्रिपक्षीय गुप्तकालीन य और द्विपक्षीय य दोनों मिलते हैं।
27. र के निचले भाग में कील का दायां कोना सातवीं और बाद की शतियों के अभिलेखों में अक्सर लंबा हो जाता है (फल. IV, 33, XVIIIXXI आदि) । कभी-कभी तो कील की रूपरेखा ही प्रकट होती है। यह आधुनिक दुमदार र का पूर्वरूप है ।
28. सातवीं शती से हमें श का एक घसीट रूप मिलता है (फल. IV, 36, XVIII; 42, XIX; V, 39, II, III आदि; VI, 44, XVXVII)। इसका बायाँ अद्धा एक फंदे के रूप में बदल दिया गया है जिसके दायें एक छोटी-सी दुम लग जाती है।
आ. स्वर मात्राएं आदि आ, ए, ओ, औ की मात्राएं और ऐ की एक मात्रा प्रायः रेखा के ऊपर
1.
258, ज. ए. सो. बं. LX, 87.
257. देखि. ऊपर 19, आ, 12. 259. ज. ए. सो. बं. LX, 85.
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