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नागरी-लिपि
गया है और इनमें नीचे क्रमशः एक और दो भंग ऋ के लगा दिये गये हैं। ल और ऋ का संयोग नागरी में भी पश्चिमी भारत की हस्तलिखित पोथियों (फलक VI, 9, 10, XV) में और आज भी मिलता है। इसका कारण इसका उच्चारण है । परम्परा यही है ।
पुरालिपि के इस तथ्य का मेल चीनी बौद्धों की परंपरा से भी बैठ जाता है। इसकी खोज सिलवान लेवी ने की थी ।254 लेवी के मत से चीनी बौद्ध अकंठ्य स्वरों का आविष्का किसी दाक्षिणात्य को मानते हैं। इसका श्रेय वे आंध्र राजा सातवाहन के मंत्री सर्ववर्मन या बौद्ध आचार्य नागार्जुन को देते हैं।
8. ए और ऐ में हमेशा त्रिभुज का आधार ऊपर को चला जाता है यह नवीनता संक्रांतिकालिक रूपों में पहले से ही थी, देखि० फल. IV, 5,X, XI ।
9. क में हमेशा बाईं ओर को एक फंदा मिलता है । यह झुकी हुई अर्गला के सिरे और खड़ी लकीर के नीचे के शोशे या कील को मिला देने की वजह से बनता है । इसके कुछ अपवाद भी हैं। जब अक्षर में उ और ऋ की मात्राएं लगती हैं (उदा. फल. IV, 7, XIV; V, 10, III; VI, 15,XVI, XVII) या दूसरे व्यंजन जुड़ते हैं (दे. फल. IV, 41, XVI; V, 43, II, III; VI, 49, V, XV; XVIII) तो ऐसा नहीं होता। नागरी अभिलेखों में तो व्यंजनों के संयोग में भी फंदा मिलता है और यह दुर्लभ नहीं है (दे. फल. IV, 7, XX, XXII; V, 43, VII, X-XIII)।
10. ख का फंदा या त्रिभुज जो पुराने वृत्त का प्रतीक है (फल. II, 10, VI, और ऊपर 3, अ, 19) खड़ी लकीर के बाएं स्थित रहता है। यद्यपि इस अक्षर के अनेक रूप मिलते हैं पर यह सब में रहता है। अक्षर के वामांग की शक्ल में पर्याप्त विभिन्नताएं मिलने का कारण कुछ तो यह है कि अक्षर का सिरा चपटा हो गया है, पर इससे बढ़कर इसकी वजह यह है कि कील में अनेक आलंकारिक परिवर्तन होने लगते हैं। यह कील पहले प्राचीन हुक के नीचे लगती थी।
11. ड में एक बिंदी आधुनिक देवनागरी की विशेषता है। पर यह बिंदी कर्ण के बनारस ताम्रपट्ट में जो सन् 1042 का है मिलती है। इस ताम्रपट्ट में
254. पत्राचार से सूचना मिली।
255. एक अपवाद उदाहरणार्थ झालरापाटण अभिलेख, इं. ऐ. V, 180 हैं, जिसमें सर्वत्र क्षुरिका रूप अक्षर मिलते हैं।
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