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के आदेशलेखों में तदनुरूप आड़ा डंडा लगता था । 253 सिरों पर यह अधोगामी लकीर और पहले से मिलने 2, VI) 1
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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
हस्तलिखित ग्रंथों में लगती है ( फल. VI,
गुप्त रूप ( फल. IV, 3, VII ) से एक भंग बना दिया गया है ( फल.
4. इ का चिह्न अधिकांश में इंदोर के निकला है । इसमें तीसरी बिंदी के स्थान पर IV, 3, XI - XIII; V, 3, II-IV, आदि; VI, 3, VI-X)। पर इसके अतिरिक्त उच्चकल्प पट्टों ( फल. IV, 3, IX ) के इ से निकला भी एक रूप है ( फल. V, 3, V, XII, XIII, आदि; VI, 3, XII-XV ) जिसमें ऊपरी बिंदी के बदले आड़ी रेखा है । यही इ आधुनिक देवनागरी इ का जनक है जिसमें निचली दोनों बिंदियां भंगों में बदल गई हैं और अंत में इन्हें जोड़ दिया गया है। जैन हस्तलिखित ग्रंथों में यदा-कदा इ का वह रूप मिलता है जिसमें ऊपर दो बिंदियाँ और उनके नीचे एक भंग होता है । यह इ 15वीं - 16वीं शती में भी मिलता है । दीर्घ ई का अद्वितीय रूप ( फल. VI, 4, V, VII ) और उसके उत्तरकालीन विकास ( फल. VI, 4, XV) इ के उदाहरण पर ही बने हैं । ये ध्यान देने योग्य हैं ।
5.
और ऊ में हमेशा नीचे की ओर एक दुम होती है जो बाएं को जाती है । कालान्तर में यह अधिक पूर्ण होती चली जाती है ।
6. ॠ का भंग जो र दायें जुड़ता है होरयूजी के ताड़पत्रों (फल. VI, 7, V) में बहुत उथला और लंबा हो जाता है । यही उथला भंग पश्चिमी भारत के उत्तरकालीन हस्तलिखित ग्रंथों की खड़ी रेखा का पूर्व रूप है । ( फल. VI, 7, XVI-XVII) कैंब्रिज के हस्तलिखित ग्रंथ सं. 1049 (फल, VI, 7, VII) और सं. 1691 में ॠ का भंग र के निचले भाग में जुड़ा है ।
253. देखि ऊपर ई., 1 2;
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7. ऋ, लृ, और लू के चिह्न सबसे पहले इसी काल की हस्तलिखित पुस्तकों में मिलते हैं (फल. VI, 8-10, V, VII, X ) । इनमें ॠ का चिह्न लघु ॠ में ॠ के भंग को जोड़ देने से बना है । कैंब्रिज हस्तलिखित ग्रंथ सं. 1049 और 1691 में लृ का जो रूप मिलता है वह दक्षिणी ल का ही एक घसीट रूप है (दे० फल. VII, 34, VI- IX), ठीक वैसे ही जैसे क्लृ ( VII, 42, XIV) में लृ और कुछ कहीं ल का एक दूसरा रूप ही है । दीर्घ लृ में लघु स्वर में ही एक ल उलटकर जोड़ देते हैं । होरियूजी की ताड़पत्रोंवाली हस्तलिखित प्रति में लृ और लु ( फल. VI, 9, 10, V ) में ल बाईं ओर पूरा घुमा दिया
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