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नागरी लिपि
१०९ बनने लगती हैं । ये बाद में और साफ दीखने लगती हैं। ये दुमें पहले अक्षर की तलरेखा के नीचे दाईं ओर तिरछी होकर लगती हैं। किंतु बाद में नागरी में खड़ी लकीरें बन जाती हैं । इसका अपवाद मात्र ए अक्षर है। दसवीं शती से इस प्रकार की लटकने छ (फल. V, 16, II, III आदि) और ढ (फल, V, 23, II) के मध्य में और फ (फल. V, III आदि ) और प (फलक, V, 42, II--IV आदि) में भी लगने लगती हैं। छ और ह में नागरी में भी ये लटकनें रह जाती हैं। फ में यह लटकन माध्य खड़ी लकीर का रूप ले लेती है । न्यूनकोणीय लिपि में ग, थ, ध और श में बहुधा दाईं ओर एक सींग जैसा शैल-प्रबर्ध बनता है या खड़ी लकीर बढ़ने लगती है। सिरों के चपटे होने की वजह से नागरी ध में इसे छोड़ देती है। इन दोनों विशिष्टताओं का कारण लेखकों द्वारा दायां और बायां भाग अलग-अलग बनाने की प्रवृत्ति है । वे इन दोनों हिस्सों को जोड़ने में भी प्रमाद करते थे ।। कालांतर में ये दोनों अनियमितताएँ अधिकांश अक्षरों की निजी विशेषताएँ बन गयीं।
2. कीलों के आखिरी हिस्सों को लंबा करने और लंबी शिरोरेखाएं बनाने के परिणाम स्वरूप अ, आ, ध, प, फ, म, य, ष, और स के सिर न्यूनकोणीय और नागरी दोनों लिपियों में धीरे-धीरे बंद हो जाते हैं । 252
3. अ और आ के बायें अद्धे का निचला हिस्सा प्रायः एक भंग होता है जो बाईं ओर को खुलता है। यह भंग सबसे पहले कुषान अभिलेखों में यदा-कदा दीख जाता है (दे. ऊपर 19, आ, 1) । बाद में उच्चकल्प पट्टों पर तो यह हमेशा ही मिलता है (फल. IV, 1, IX) । मराठों के बालबोध में यह भंग सुरक्षित है। संस्कृत के बंबइया संस्करणों में यह सामान्य बात है। नागरी के दूसरे पुराने नमूनों में इसके बदले दो तिरछी लकीरें लगती हैं (फल. V, 1. 2, XVI)। पहले अक्षरों के नीचे कील बनती थी। उसके बदले नीचे की ओर अब एक तीसरी लकीर भी जोड़ देते हैं । अ, आ के जो रूप बनारस और कलकते के संस्करणों में मिलते हैं वे इसी रूप से निकले हैं। आठवीं शती तक दीर्घ आ के लिए हमेशा अ के चिह्न में दायें किनारे एक भंग जोड़ देते थे। बाद में इसके लिए नीचे की ओर जाती एक लकीर बनने लगती है । यह लकीर या तो अ के सिरे पर दाईं ओर लगती थी ( जैसे, फल. IV, 2, XXI ) या बीच में (फल. IV, 2, XXII) । इस प्रकार वह फिर उसी स्थान पर आ जाती है जहाँ अशोक
251. Anec. Oxon., Aryan Series, I, 3, 70 252. देखिए ऊपर 23.
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