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भारतीय पुरालिपि- शास्त्र
के सिरों पर कीलों के स्थान पर आड़ी रेखाएं बनाते हैं । ऐसे भी लेख मिलते हैं जिनमें कुछ अक्षरों में कीलशीर्ष हैं और कुछ में आड़ी शिरोरेखाएं । इसलिए कभीकभी तो अभिलेखों के सही वर्गीकरण में भी कठिनाई होने लगती है ।
इसी तीसरे और न्यूनकोणीय लिपि के अंतिम विभेद के अंतर्गत सन् 708-9 के मुल्ताई ताम्रपट्ट 226 ( फल. IV, स्त. XX ) ; संभवतः सन् 761 Satsang ( फल. IV, स्त. XXI ) 227, सन् 876 ई. का ग्वालियर अभिलेख (फल. V, स्त. II) और घोसरावा अभिलेख के भी ( फल V, स्त. V1) 228 अक्षर आते हैं जो नवीं या दसवीं शती के होंगे । हस्तलिखित ग्रंथों में कैंब्रिज की पांडुलिपि सं. 1049 ( फल. VI, स्त. V111 ) भी इसी वर्ग की है। इस पर संवत् 252 229 की तिथि है । यह संवत् संभवतः अंशुवर्मा संवत् है जो सन् 594 में चला | 230 इस प्रकार यह प्रति सन् 846 की हुई । न्यून कोणीय और नागरी लिपियों के बीच एक माध्यमिक स्थिति भी है जो लगभग सन् 900 ई. की पहोवा प्रशस्ति ( फल. V, स्त. III ), सन् 992 या 993 ई. की देवल प्रशस्ति ( फल. V, स्त. VIII ) और परमार राजा वाक्पतिराज द्वितीय के सन् 974 ई. के ताम्रपट्ट के अक्षरों में ( फल. V, स्त. X ) 231 में मिलती है । इनमें कीलें तो अवश्य मिलती हैं, पर ये इतनी चौड़ी हैं कि सीधी शिरोरेखाओंसी ही लगती हैं | अलावा, अ, आ, घ, प आदि के खुले सिर नागरी अभिलेखों की तरह बंद हैं। ऊपर ऐसे अभिलेखों की भी चर्चा आई है जिनमें कील शीर्ष और
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XVII ए. इं.
225. इस विभेद और इससे पूर्व के विभेद के लिए मिला. इं. ऐ., II, 258; V, 180;IX, पृ, 174 तथा आगे, सं. 11, 13, 14, 15; X, 31; 310; XIX, 58; बेंडेल, जर्नी इन नेपाल, फल. 10, 11, 13; I, 179; क, आ, स. रि. XVII, फल. 9 की प्रतिकृतियों से और क., क्वा. मि. इं. फल. 3, सं. 7-14; फल. 6, सं. 20 और फलक 7 की आटोटाइपों से । 226. फ्लीट, इं. ऐ. XVIII, 231 के विचार से 'संक्रमणकालीन प्रकार जिससे थोड़े ही समय में उत्तर भारत की नागरी वर्णमाला निकली '
227. फ्लीट, इ. ऐ. 228. मिला. इं. ऐ.
XV, 106 के विचार से 'उत्तर भारत की नागरी । ' XVII, 308
229. बेंडेल, कै. कै. बु. म. ने., XLI; Anec. Oxon, Ar. Series. III, पृ. 71 तथा आगे ।
230. सि. लेवी. ज. ए. 1894 II, पृ. 55 तथा आगे । 231. ए. ई. I, 76; इं. ऐ. VI,
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