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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
से बहुत बाद की नहीं है । इन रूपों की मुख्य विशेषता यह है कि इनमें अक्षर दायें से बायें को झुकते हैं । नीचे या दाईं ओर आखीर में एक न्यून कोण बनता है । अक्षरों में खड़ी या तिरछी रेखाओं के सिरों पर हमेशा छोटी-सी कील बनती है । इनके आखीर में भी या तो ऐसे ही अलंकरण या दाईं ओर शैल - प्रबर्ध बनते हैं । अगली चार शताब्दियों के बहुसंख्यक अभिलेखों में ये विशेषताएं मिलती हैं । इसलिये मैं इस वर्ग के अक्षरों को 'न्यूनकोणीय अक्षर ही कहना उचित समझता हूँ | पहले 21 प्रायः इन्हें 'कील - शीर्ष' कहते थे किंतु इधर यह नाम छोड़ दिया गया है । पर इसके स्थान पर किसी दूसरे जातीय नाम का प्रस्ताव नहीं हुआ है । फ्लीट ने गया अभिलेख 217 के संपादन में केवल यही लिखा है कि अक्षर उत्तरी वर्ग के हैं । इनका भारतीय नाम संभवतः सिद्धमातृका (लिपि) था, क्योंकि बरूनी248 कहता है कि इस नाम की कोई लिपि उसके समय ( लग. 1030 ई.) में कश्मीर और बनारस में प्रचलित थी । मालवा में नागरी लिपि थी । यदि बनारस की सामान्य लिपि कश्मीर की लिपि से मिलती-जुलती थी तो भी इसमें लंबी आड़ी शिरोरेखाएं नहीं हो सकतीं जो नागरी की सदा से विशेषता रही हैं । पर बरूनी की उक्ति अति संक्षिप्त और अस्पष्ट है । इससे इस प्रश्न का कोई निश्चित हल नहीं निकलता ।
ऊपर जिन दो अभिलेखों की चर्चा आई है वे अपने सगोत्री अन्य लेखों की भाँति पश्चिमी गुप्त लिपि से संबद्ध हैं । ये छठीं शती की न्यूनकोणीय लिपि के विकास में प्रथम चरण सूचक हैं । होरियूजी के ताड़-पत्र भी इसी उपविभाग के अंतर्गत आते हैं । जापानी परंपरा के अनुसार ये छठी शती के द्वितीयार्ध में विद्यमान थे | 219 यदि 14 वर्ष पूर्व जब मैंने इन ताड़पत्रों की लिपि पर Anecdota Oxoniensia में निबंध लिखा था, गया और लक्खामंडल अभिलेखों की छाप मुझे उपलब्ध होती तो जापानी परंपरा को सही सिद्ध करने के लिए इनके अक्षरों से तुलना कर देना ही पर्याप्त होता ।
सन् 635 के अंशुवर्मा के अभिलेख (फल. IV, स्त. XVII ) और
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216. उदाहरणार्थ देखि टाड, एनल्स आफ राजस्थान, (मद्रास संस्करण ) I, पृ. 700 तथा आगे ।
217. फ्ली. गु. इं. ( का. इं. इं. III ), 274 218. इंडिया, I, 173 ( सचाऊ )
218. Anecd. Oxon., Ar. Series, 3, 64. 219. Anecd. Oxon., Ar. Series, 1, 3, 64.
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