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गुप्त-लिपि
दीखती हैं । यदि घ (फल. VI, 18, I-IV) जैसे किसी अक्षर में, जिसमें ऊपर की ओर कई लकीरें हों तो सभी लकीरों में शोशे लगते हैं । इसी प्रकार अक्षरों की खड़ी लकीरों में नीचे भी शोशे लगते हैं या कीलें या नन्हीं बटनें बना दी जाती हैं। हस्तलिखित ग्रंथों में जो सामग्री लिखने के काम में आती है वह पत्थर या तांबे से अधिक अच्छी होती है। उस पर अक्षरों में अधिक एकरूपता रहती है। शोशों की अवश्यंभाविता के कारण क (15, IV) के बायें एक फंदा लगता है213 (मिला. 15, I, III)। बावर की प्रति में कभी-कभी यह रूप मिलता है। अभिलेखों में यह बाद में सन् 588-89 (देखि. फल. IV, 7, XIII) से दीखता है।बावर की प्रति में द्विपक्षीय य का एक पुरागत रूप भी मिलता है; उदाहरणार्थ प्रयोजयेत् (फोलियो 31a, 11) में। पर यह रूप बहुत कम प्रयोग में आता है। अंत में, इस प्रति में कुछ ऐसी ध्वनियों के भी चिह्न मिलते हैं जिनका अभिलेखों में बहुत कम प्रयोग मिलता है । चौथी-पांचवीं शती के अभिलेखों में अभी तक ये चिह्न नहीं मिले हैं। दीर्घ ई (4, I), लघु ऋ और औ (14, I, II) ऐसे ही चिह्न हैं। दीर्घ ई में पुरानी ऊपरी और निचली बिंदियों को मिलाकर एक सीधी रेखा बना दी गई है (मिला. फल. VI, 4, V, VII)। लघु ऋ में र में ऋ की मात्रा लगा दी है (मिला. ऊपर 1, और आगे 24, अ, 7) । औ (14, I, II) सन् 532 ई. के अभिलेखीय चिह्न (फल. IV, 6, X) से पूरी तरह मिलता है । न (34, III) में दूसरा चिह्न ऋ का है जो दुहरा ऋ है । दोनों चिह्न अगल-बगल में आड़े रख दिये गये हैं।
23. न्यनकोणीय और नागरी शैलियाँ : फलक IV, V, VI
छठी शती के प्रारंभ में उत्तरी अभिलेखों में-पूर्वी और पश्चिमी भारत दोनों क्षेत्रों में हम एक नये विकास का प्रारंभ देखते हैं। (फल. IV, स्त. x--XII) 214 इसीसे सबसे पहले सन् 588-9 के गया अभिलेख (फल. IV, स्त. XIII, XIV) और लक्खामंडल प्रशस्ति (फल. IV, स्त. XV, XVI) 215 के रूपों का निर्माण होता है। यह प्रशस्ति संभवतः गया अभिलेख
213. Anecd. Oxon., Aryan Series, I, 3, 76.
214. मिला. फ्ली. गु. ई. (का. इं. ई. III), सं. 20, 24, 33, 34, 36, 37, 47, 51, 70, 75 तथा कुमारगुप्त द्वितीय की मुहर की प्रतिकृतियों से भी, (ज. ए. सो. बं. LVIII, 84) ।
215. मिला. फ्ली. गु. इं. (का. ई. ई. III), सं. 72, 76, 78, 79, 80 की प्रतिकृतियों से भी।
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