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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र आ. अभिलेखों की गुप्त-लिपि की विशेषताएं : ___ गप्त अभिलेखों की निम्नलिखित विशेष महत्त्वपूर्ण या निजी विशिष्टताओं की व्यौरेवार चर्चा आवश्यक है :
1. अ, आ, ग, ड, भ और श के दाईं ओर की खड़ी रेखाओं के निचले हिस्से काफी लंबे हो गये हैं। क और र की खड़ी लकीरें पहले से ही लंबी थीं। इन आठ अक्षरों की लंबाई उन अक्षरों की दुगुनी के करीब हो जाती है जिनमें खड़ी लकीरें नहीं हैं। यह विशिष्टता विशेषकर उन पुराने अभिलेखों में परिलक्षित होती है जो पत्थरों पर खुदे हैं। ताम्रपत्रों पर बहुधा ये रेखाएं छोटी मिलती हैं।
2. घ, प, फ, ष, और स के दायें भाग में एक-न्यून कोण बनता है। इसीसे बाद में इन अक्षरों में दुमें निकल आती हैं या दाईं ओर खड़ी लकीरें बन जाती हैं।
3. पांचवीं शती के मध्य से अ (1, IX, XI) के वामांग के निचले हिस्से में एक भंग मिलने लगता है जो बाईं ओर को खुलता है। इस अक्षर के सभी उत्तरकालीन रूपों में यह मिलता है। अ को दीर्घ कर आ बनाने का चिह्न दाईं ओर की खड़ी लकीर के पैर में जुड़ता है (2, VII-IX) ।
4. अक्षरों के सिरों को चपटा करने की प्रवृत्ति इस काल में रही है। इसी वजह से कुषानकालीन इ (3, I, V) के अतिरिक्त इ का एक ऐसा रूप भी मिलता है जिसमें ऊपर दो बिंदियाँ हैं (3, VII) । बाद में यह रूप खूब मिलता है। इसका एक रूप और है जिसमें नीचे दो बिंदियाँ और ऊपर एक आड़ी लकीर होती है (3, IX)। इसी रूप से बाद का दक्षिणी का इ का रूप (फल. VII, VIII, और देखि. आगे 28) नागरी की इ (देखि.आगे 24, अ, 4) के रूप बने ।
5. उ, ऊ और ओ में शुरू में बाएं किनारे जो भंग बने थे, पाँचवीं शती में उनका और अधिक विकास हो गया। मिला. ऊपर 19, आ, 4)।
6. श और ह (11, VII) के पूर्व अनुस्वार के स्थान पर कंठ्य ड मिलना शुरू हो जाता है । इसका कारण अशुद्ध उच्चारण हो सकता है, शिक्षा209 में इसे दोषयुक्त बताया है।
7. ज (14, I-III, VII, VIII) की तीसरी आड़ी रेखा अब नीचे की ओर तिरछे गिरने लगती है। इसमें आखीर में कभी-कभी भंग भी मिलता है। इसी से आगे चलकर स्त. XXI-XXIII के नये रूप निकलते हैं।
8. तालव्य ञ (16, I, II; 42, I, VI, VII, XI) को अक्सर घसीट कर लिखते हैं और गोला कर देते हैं। जगह बचाने के लिए इसे कभी-कभी
209. हाग, वेडिशेर ऐक्सेंट, 64...
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