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सेन-वंश ।
तिथियोंमेंसे ५ के वार ठीक ठीक मिलते हैं और यदि गंतकलियुग संवत् १०४१, कार्तिक-शुक्ला १ को इस संवत्का पहला दिन माना जाय तो छहों तिथियोंके वार मिल जाते हैं । परन्तु अभीतक इसके आरम्भका पूरा निश्चय नहीं हुआ।
ऐसा भी कहते हैं कि जिस समय बल्लालसेनने मिथिला पर चढ़ाई की उसी समय, पीछेसे, उसके मरनेकी खबर फैल गई तथा उन्हीं दिनों उसके पुत्र लक्ष्मणसेनका जन्म हुआ। अतः लोगोंने बल्लालसेनको मरा समझ कर उसके नवजात बालक लक्ष्मणको गद्दी पर बिठा दिया और उसी दिनसे यह संवत् चला ।
विक्रम संवत् १२३५ ( शक-संवत् ११०० ) में लक्ष्मणसेन गद्दी पर बैठा । अतएव यह संवत् अवश्य ही लक्ष्मणसेनके जन्मसे ही चला होगा।
बल्लालने पालवंशी राजा महीपाल दूसरेको कैद करनेवाले कैवर्तीको अपने अधीन कर लिया था । कहा जाता है कि उसने अपने राज्यके पाँच विभाग किये थे-१-राढ, (पश्चिम बङ्गाल ), २-वरेन्द्र ( उत्तरी बङ्गाल), बागड़ी, ( गंगाके मुहानेके बीचका देश) ४-बङ्गः ( पूर्व बंगाल) और ५-मिथिला ।। __ पहलेसे ही वङ्ग-देशमें बौद्ध-धर्मका बहुत ज़ोर था। अतएव धीरे धीरे वहाँके ब्राह्मण भी अपना कर्म छोड़ कर व्यापार आदि कार्यों में लग गये थे और वैदिक धर्म नष्टप्राय हो गया था। यह दशा देख कर पूर्वोल्लिखित राजा आदिशूरने वैदिक धर्मके उद्धारके लिए कन्नौजसे उच्चकुलके ब्राह्मणों और कायस्थोंको लाकर बङ्गालमें बसाया। उनके वंशके लोग अब तक कुलीन कहलाते हैं । आदिशूरके बाद इस देश पर बौद्धधर्मावलम्बी पालवंशियोंका अधिकार हो जानेसे वहाँ फिर वैदिक-धर्मकी (१) लघु भारत, द्वितीय खण्ड, पृ० १४० और J. Bm. A. S. 1896. p. 26.
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