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पाल-वंश।
‘पर की गई चढाईसे भी यही सिद्ध होता है, क्योंकि वह चढ़ाई सम्भवतः पिताके समयका बदला लेनेहीके लिए विग्रहपालने की होगी। उस चढ़ाई के समय आचार्य-दीपाङ्कर वज्रासन (बुद्धगया अथवा बिहार ) में रहता था। युद्ध में यद्यपि पहले कर्ण विजय हुआ और उसने कई नगरों पर अपना अधिकार कर लिया; तथापि, अन्तमें, उसे नयपालसे हार माननी पड़ी। उस समय उक्त आचार्यने बीचमें पड़ कर उन दोनोंमें आपसमें सन्धि करवा दी। इस समयके कुछ पूर्व ही नयपालने इस आचार्यको विक्रमशीलके बौद्ध-विहारका मुख्य आचार्य बना दिया था। कुछ समयके बाद तिब्बतके राजा लहलामा यसिस होड ( Lha Lama Yeseshod ) ने इस आचार्यको तिब्बतमें ले आनेके लिये अपने प्रतिनिधिको हिन्दुस्तान भेजा। परन्तु आचार्यने वहाँ जाना स्वीकार न किया। इसके कुछ ही समय बाद तिब्बतका वह राजा कैद होकर मर गया और उसके स्थान पर उसका भतीजा कानकूब ( Can-Cub) गद्दी पर बैठा । इसके एक वर्ष बाद कानकूबने भी नागत्सो ( Nagtso ) नामक पुरुषको पूर्वोक्त आचार्यको तिब्बत बुला लाने के लिए विक्रमशील नगरको भेजा । इस पुरुषने तीन वर्षतक आचार्यके पास रहकर उन्हें तिब्बत चलने पर राजी किया । जब आचार्य तिब्बतको रवाना हुए तब मार्गमें नयपाल देश पड़ा । वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजी नयपालके नाम विमलरत्नलेखन नामक पत्र भेजा। तिब्बतमें पहुँचकर बारह वर्षों तक उन्होंने निवास किया ( एक जगह तेरह वर्ष लिखे हैं ) और सन् १०५३ ईसवीमें ( विक्रम-संवत् १११०) में, वहीं पर, शरीर छोड़ा।
इस हिसाबसे सन् १०४२ ईसवी ( विक्रम-संवत् १०९८ ) के आसपास आचार्य तिब्बतको रवाना हुए होंगे। अतएव उसी समय तक नयपालका जीवित होना सिद्ध होता है ।
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