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मालवेके परमार।
इस कथाका प्रथमा जैनों द्वारा कल्पना किया गया मालूम होता है। एकका पुण्य दूसरेको दे दिया जा सकता है, हिन्दू-धर्मवालोंका ऐसा ही विश्वास है । इसी विश्वासकी हँसी उड़ानेके लिए शायद जैनियोंने यह कल्पना गढ़ी है।
यद्यपि इस विजयका जिक्र मालवेके लेखादिमें नहीं है, तथापि झ्याश्रयकाव्य और चालुक्योंके लेखोंमें इसका हाल है। मालवेके भाटोंका कथन है कि इस युद्ध में दोनों तरफका बहुत नुकसान हुआ ! यह कथन प्रायः सत्य प्रतीत होता है।
यह कथा ट्याश्रयकाव्यमें भी प्रायः इसी तरह वर्णन की गई है। अन्तर बहुत थोड़ा है । उसमें इतना जियादह लिखा है कि यशोवर्माके पुत्र महाकुमारको जयसिंहके भतीजे मौसलने मार डाला । जयसिंहको सपरिवार कैद करके वह अणहिलवाड़े ले गया । मालवेका राज्य गुजरातके राज्यमें मिला दिया गया तथा जैन-धर्मावलम्बी मन्त्री जैनचन्द्र वहाँका हाकिम नियत किया गया। __ मालवेसे लौटते हुए जयसिंहकी सेनासे भीलोंने युद्ध करके उसे भगा देना चाहा । परन्तु सान्तुसे उन्हें स्वयं ही हार खानी पड़ी ।
दोहद नामक स्थानमें जयसिंहका एक लेख मिला है जिसमें इस विजयका जिक्र है। उसमें लिखा है कि मालवे और सौराष्ट्रके राजाओंको जयसिंहने कैद किया था ।
सोमेश्वरने अपने सुरथोत्सव नामक काव्यके पन्द्रहवें सर्गके बाईसवें श्लोकमें लिखा है:
नीतः स्फीतबलोऽपि मालवपतिः काराञ्च दारान्वितः । अर्थात्-उसने बलवान मालवेके राजाको भी सस्त्रीक कैद कर लिया। (१) Ep. Ind, Vol. I, p. 256.
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