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मालवेके परमार।
अर्थात्-समुद्रघोषका शिष्य सूरप्रभसूरि अवन्ती नगर भरमें प्रसिद्ध विद्वान था। ___ जैन अभयदेवसूरिके जयन्तकाव्यकी प्रशस्तिमें नरवीका जैन वल्लभसूरिके चरणों पर सिर झुकाना लिखा है । वि० सं० १२७८ में यह काव्य बना था। इस काव्यमें वल्लभसूरिका समय वि० सं० ११५७लिखा है। यद्यपि इस काव्यमें लिखा है कि नरवर्मा जैनाचार्योंका भक्त था, तथापि वह पक्का शैव था, जैसा कि धारा और उज्जेनके लेखोंसे विदित होता है।
चेदिराजकी कन्या मोमला देवीसे नरवर्माका विवाह हुआ था। उससे यशोवर्मा नामका एक पुत्र उत्पन्न हुओं।
कीर्तिकौमुदीमें लिखा है कि नरवर्माको काष्ठके पिंजड़ेमें कैद करके उसकी धारा नगरी जयसिंहने छीन ली । परन्तु यह घटना इसके पुत्रके समयकी है । १२ वर्ष तक लड़ कर यशोवर्माको उसने कैद किया था।
नरवर्माके समयके दो लेखोंमें संवत् दिया हुआ है । उनमेंसे पहला लेख वि० सं० ११६१ ( ई० स० ११०४) का है, जो नागपुरसे मिला था । दूसरा लेख वि० सं० ११६४ ( ई० स० ११०७) का है । वह मधुकरगढ़में मिला था । बाकीके तीन लेखों पर संवत् नहीं है । प्रथम भोजशालाके स्तम्भवाला, दूसरा 'उन' गाँवकी दीवारवाला और तीसरा महाकालके मन्दिरवाला लेखखण्ड ।
१४-यशोवर्मदेव । यह नरवर्मदेवका पुत्र था और उसीके पीछे गद्दी पर बैठा । परमारोंका वह ऐश्वर्य, जो उदयादित्यने फिरसे प्राप्त कर लिया था, इस राजाके
(१) History of Jainism in Gujrat, pt. I, p. 38. (२) Ind. Ant., XIX. 349. (३) Tra. R. A.S., Vol. I, P. 226.
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