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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश लिखाया हुआ है । इसलिए इस लेखमें उसकी अनेक चढ़ाइयोंका उल्लेख है; परन्तु त्रिपुरी पर किये गये हमले और तुरुष्कोंके साथवाली लड़ाईके सिवा इसकी और सब बातें कल्पित ही प्रतीत होती हैं। उस समय शायद त्रिपुरीका राजा कलचुरी यशःकर्णदेव था। १३-नरवर्मदेव । यह अपने बड़े भाई लक्ष्मदेवका उत्तराधिकारी हुआ । विद्या और दानमें इसकी तुलना भोजसे की जाती थी। इसकी रचित अनेक प्रशस्तियाँ मिली हैं। उनसे इसकी विद्वत्ताका प्रमाण मिलता है। __ नागपुरकी प्रशस्ति इसीकी रची हुई है। यह बात उसके छप्पनवें श्लोकसे प्रकट होती है । देखिए: तेन स्वयं कृतानेकप्रशस्तिस्तुतिचित्रितम् । श्रीमलक्ष्मीधरैणैतद्देवागारमकार्यत ॥ [ ५६ ] अर्थात्-नरवर्मदेवने अपनी बनाई हुई अनेक प्रशस्तियोंसे शोभित यह देवमन्दिर श्रीलक्ष्मीधर द्वारा बनवाया। इस प्रशस्तिका रचनाकाल वि० सं० ११६१ ( ई० स० ११०४-५) है। उज्जेनमें महाकालके मन्दिरमें एक लेखका कुछ अंश मिला है । वह भी इसीका बनाया हुआ मालूम होता है । यह लेखखण्ड अब तक नहीं प्रकाशित हुआ । धारामें भोजशालाके स्तम्भ पर जो लेख है वह, और इन्दौर-राज्यके खरगोन परगनेके ' उन' गाँवमें एक दीवार पर जो लेख है वह भी, इसीकी रचना है। (१) पुत्रस्तस्य जगत्त्रयैकतरणेः सम्यक्प्रजापालन-- व्यापारप्रवणः प्रजापतिरिव श्रीलक्ष्मदेवोऽभवत् । नीत्या येन मनुस्तथानुविदधे नासौ न वैवस्वतः सर्वत्रापि सदाप्यवर्धत यथा कीर्तिन वैवस्वतः ॥ [३५] -Ep. Ind., Vol. II, p. 186. १४२ For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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