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भारतके प्राचीन राजवंश
प्रबन्धचिन्तामणिकार मेरुतुङ्ग लिखता है कि वह अपने भाई शोभनके उपदेशसे कट्टर जैन हो गया था। उसने जीव-हिंसा रोकनेके लिए भोजको उपदेश दिया था तथा जैन हो जाने पर तिलकमञ्जरीकी रचना की थी । परन्तु तिलकमञ्जरीमें वह अपनेको ब्राह्मण लिखता है । इससे अनुमान होता है कि उक्त पुस्तक लिखी जाने तक वह जैन न हुआ था ।
तिलकमञ्जरीकी रचना १०७० के लगभग हुई होगी । उस समय पाइय-लच्छी - नाममाला लिखे उसे ४० वर्ष हो चुके होंगे । यदि पाइयलच्छी - नाममाला बनाने के समय उसकी उम्र ३० वर्षके लगभग मानी जाय तो तिलकमञ्जरीकी रचना के समय वह कोई ७० वर्षकी रही होगी । उसके बाद यदि वह जैन हुआ हो तो आश्चर्य नहीं ।
डाक्टर बूलर और टानी साहब भोनके समय तक धनपालका जीवित रहना नहीं मानते । परन्तु यदि वे उक्त कविकी बनाई तिलकमञ्जरी देखते तो ऐसा कभी न कहते । ऋषभपञ्चाशिका भी इसी कविकी बनाई हुई है।
पद्मगुप्त ।
इसका दूसरा नाम परिमल था । मुञ्जके दरबारमें इसे कविराजकी उपाधि थी । तंजोरकी एक हस्तलिखित नवसाहसाङ्कचरितकी पुस्तकमें 'परिमलका नाम कालिदास भी लिखा है । इसने मुखके मरने पर कविता करना छोड़ दिया था । पर फिर सिन्धुराजके कहने से नवसाहसाङ्कचरित नामका काव्य बनाया । यह भाव कविने अपनी रचित पुस्तक के प्रथम सर्गके आठवें श्लोकमें व्यक्त किया है:
दिवं यियासुर्मम वाचिमुद्रामदत्त यां वाक्पतिराजदेवः ।
तस्यानुजन्मा कविबांधवस्य भिनत्ति तां संप्रति सिन्धुराजः ॥ ८ ॥ अर्थात् - वाक्पतिराजने स्वर्ग जाते समय मेरे मुख पर खामोशीकी मुहर लगा दी थी । उसको उसको छाटा भाई सिन्धुराज अब तोड़ रहा है ।
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