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करता हुआ देख भारतगवर्नमेण्टने भी इसे अपने यहाँके रजिस्टर्ड म्यूज़ियमोंकी फेहरिस्तमें दाखिल कर लिया, जिससे इस अजायबघरको पुरातत्त्वसम्बन्धी रिपोर्ट, पुस्तकें और पुराने सिक्के वगैरा मुफ्त मिलने लगे। इसके बाद इन्हींके उद्यागसे जोधपुरमें पहले पहल राज्यकी तरफ़से पलिक लाइब्रेरी ( सार्वजनिक पुस्तकालय ) खोली गई और इन्हींकी देख रेखमें आज वह अजायबघरके साथ ही साथ नये ढंगपर सर्वांगसुन्दर पुस्तकालयके रूपमें मौजूद है।
इसी अरसेमें जोधपुर राज्यके जसवन्त-कालेजमें संस्कृतके प्रोफेसरका पद खाली हुआ और शास्त्रीजीने अपने म्यूजियम और लाइब्रेरीक कामके साथ साथ ही करीव सवा वर्ष तक यह कार्य भी किया । इनका बर्ताव अपने विद्यार्थियोंके साथ हमेशा सहानुभूतिपूर्ण रहता था और इनके समयमें इलाहाबाद यूनिवर्सिटीकी एफ० ए० और बी० ए० परीक्षाओंमें इनके पढाये विषयोंका रिजल्ट सैन्ट पर सैन्ट रहा ।
हालां कि इनको वहाँ पर अधिक वेतन मिलनेका मौका था, परन्तु प्राचीन शोधमें प्रेम होनेके कारण इन्होंने अजायब घरमें रहना ही पसन्द किया। इसपर राज्यकी तरफ़से आप म्यूजियम ( अजायब घर ) और लाइब्रेरी ( पुस्तकालय ) के सुपरिटेण्डेण्ट नियत किये गये। तबसे ये इसी पद पर हैं और राज्यके तथा गवर्नमेण्टके अफसरोंने इनके कामकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है।।
इन्होंने सरस्वती आदि पत्रोंमें कई ऐतिहासिक लेखमालाएँ लिखीं और उन्हींका संग्रहरूप यह ‘भारतके प्राचीन राजवंश ' का प्रथम भाग है । इसर हिन्दीके प्रेमियोंको भी आजसे करीब २००० वर्ष पहले तकका बहुत कुछ सचा हाल मालूम हो सकेगा।
क्षत्रप-वंश । इस प्रथम भागमें सबसे पहले क्षत्रपवंशी राजाओंका इतिहास है। ये लोग विदेशी थे और जिस तरह जालोर ( मारवाड़ राज्यमें ) के पठान जो कि खान कहलाते थे हिन्दीमें लिखे पट्टों और परवानोंमें 'महाखान' लिखे जाते थे, उसी तरह क्षत्रपोंके सिक्कोंमें भी क्षत्रप शब्दके साथ ' महा ' लगा मिलता है।
क्षत्रपोक सिक्कों पर खरोष्टी लिपिके लेख होनेसे इनका विदेशी होना ही सिद्ध होता है; क्योंकि ब्राह्मी लिपि तो हिन्दुस्तानकी ही पुरानी लिपि था पर युनानी
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