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भूमिका ।
लेखकका परिचय । मैं साहित्याचार्य पण्डित विश्वेश्वरनाथ शास्त्रीको संवत् १९६६ से जानता हूँ; जब कि ये जोधपुर राज्यके बार्डिक क्रॉनिकल डिपार्टमेण्टमें नियत किये गये थे। इस महकमेका एक मेम्बर मैं भी था। इस महकमेमें इतिहाससे सम्बन्ध रखनेवाली डिंगल भाषाकी कविता संग्रह की जाती थी। इस महकमेमें काम करनेसे इनकी इतिहासमें रुचि हुई और समय पाकर वही रुचि कथाके ढंगके साधारण इतिहासकी हदको पारकर पुरातत्त्वानुसन्धान अर्थात् पुराने हालकी खोजके ऊँचे दरजे तक जा पहँची; जो कि पुरानी लिपिमें लिखे संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओंके शिलालेख ताम्रपत्र और सिक्कोंक आधारपर की जाती है।
ये संस्कृत और अँगरेजी तो जानते ही थे, केवल पुरानी लिपियोंके सीखनकी आवश्यकता थी। इसके लिये ये मेरा पत्र लेकर राजपूताना म्यूजियम (अजायब घर के मुपरिटेण्डेण्ट रायबहादुर पण्डित गौरीशंकर ओझासे मिले और उनसे इन्होंने पुरानी लिपियोंका पढ़ना सीखा।
जिस समय ये अजमेरमें पुरानी लिपियोंका पढ़ना सीखते थे उस समय इन्होंने बहुतसे सिक्कों आदिके कास्ट बनाकर मेरे पास भेजे थे, जिन्हें देख मैंने समझ लिया था कि ये भी ओझाजीकी तरह किसी दिन हिन्दी साहित्यको कुछ पुरातत्त्वसम्बन्धी ऐसे रत्न भेट करेंगे; जिनसे हिन्दी साहित्यकी उन्नति होगी । मुझे यह देख बड़ा हर्ष हुआ कि मेरा वह अनुमान ठीक निकला ।
इनका उद्योग देख ईश्वरने भी इनकी सहायता की और कुछ समय बाद इन्हें जोधपुर ( मारवाड़) राज्य के अजायबघरकी ऐसिस्टैप्टीका पद मिला । उस समय यहाँका अजायबघर केवल नाम मात्रका था । परन्तु इनके उद्योगसे इसकी बहुत कुछ उन्नति हुई । इसमें पुरातत्त्वविभाग खोला गया और इसको दिन दिन तरक्की
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