________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५४
भामिनी-विलासे लपटोंसे घिर सकता है। ऐसी शंका उसके विषयमें सहृदयोंको रहती ही है । उस समय उसकी सारी सधानसम्पन्नता व्यर्थ हो जायगी।
इस पद्यका अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है [ तरव एव पतयः = फलछायादिदानेन रक्षकाः यस्य तत्सम्बुद्धौ हे तरुपते ! = तपस्विन् ! तव । मूलं = ब्रह्म । ऊर्ध्व मूलमधः शाखमित्यादिस्मृतेरधिष्ठानात् । स्थूलं-महत्परिमाणं, दृढबन्धनम् = अविनाशीति यावत् । शाखाः = तैत्तिरीयादिरूपाः शतं = बहुसंख्याकाः । मांसला: = परिपुष्टाश्च । अतः कुत्र भीतिकारणम् । केवलं ज्वालालीत्यादि पूर्ववत् । दावानलः = संघर्षजन्यः । अघहेतुः = पापकारणीभूतः यः स्मरः = कामः इति अघस्मरः, एव मम स्वान्ते संताप जनयति ] हे तपस्विन् ! तुम्हारा आधारभूत ब्रह्म दृढ़ है। उपासनाकी साधनभूत शाखाएं पुष्ट एवं सैकड़ों हैं । वनमें वास है । इसलिये तपःक्षयकी डरका कोई कारण कहींसे नहीं, किन्तु स्त्री-पुरुषके संसर्गसे उत्पन्न होनेवाली कामरूप अग्निकी ही चिन्ता तुम्हारे विषयमें मुझे सताती है कि कहीं उसकी लपटमें आकर तुम नष्ट न हो जाओ । इस अर्थमें दावानल पद लाक्षणिक है। अर्थात् जिस प्रकार वनोंमें दो काष्ठोंके संयोगसे उत्पन्न अग्नि वनाग्नि होकर सारे वनको भस्म कर देती है उसी प्रकार स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न यह कामाग्नि भी संचित तपश्चर्याको नष्ट कर देती है । सम्पूर्ण अधों (पापों ) का हेतुभूत यह स्मर ( काम ) ही तुम्हारा शत्रु है इसे जीतो। ___इसमें श्लेष अलंकार है; क्योंकि पृथक्-पृथक् अर्थोका संश्रय इन्हीं शब्दों द्वारा व्यक्त है-"नानार्थसंश्रयः श्लेषो वावर्योभयाश्रयः” (कुवलया०) यह शार्दूलविक्रीडित छन्द है (लक्षण दे० श्लो० ३) ॥३२॥ किसीका आशाच्छेद नहीं करना चाहियेग्रीष्मे भीष्मतरैः करैर्दिनकृता दग्धोऽपि यश्चातकस्त्वां ध्यायन्धन वासरान्कथमपि द्राधीयसो नीतवान् ।
For Private and Personal Use Only