SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः ४१ टिप्पणी-इसी भावको श्लोक ५ में व्यक्त कर चुके हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ कुटज सम्बोधनसे अत्यन्त जड़की अभिव्यक्ति होती थी यहाँ कलभ सम्बोधनसे चेतन होनेपर भी अज्ञता व्यक्त होती है। कलभ शब्द शिशु हाथीके लिये प्रयुक्त होता है । अर्थात् तुम अभी अबोध बच्चे हो, इसका महत्त्व नहीं समझते । हाथी ज्यों-ज्यों युवा होता जाता है त्यों-त्यों उसका मदवारि अधिक निकलता है। जितना मदजल निकलता है उतना ही उसका रूप निखर आता है। अतः दानसुन्दराणां यह विशेषण दिया है। द्विपधुर्यका तात्पर्य है सामान्य हाथी इसे क्या समझेंगे, जो श्रेष्ठ हाथी है वे ही इसकी महत्ताको समझकर इसे मदगन्ध द्वारा अपने मस्तकपर बैठनेका आमन्त्रण देते हैं। काव्यलिङ अलंकार है; क्योंकि तिरस्कार न करना रूप अर्थ का समर्थन द्विपधुर्योद्वारा आदरणीय होनेसे किया गया है । गीति छन्द है ॥२५॥ तृष्णाका अन्त नहीं अमरतरुकुसुमसौरभसेवनसंपूर्णसकलकामस्य । पुष्पान्तरसेवेयं भ्रमरस्य विडम्बना महती ॥२६॥ अन्वय-अमरतरु 'कामस्य, भ्रमरस्य, इयं, पुष्पान्तरसेवा, महती, विडम्बना। शब्दार्थ-अमरतरु = देवद्रुम ( कल्पवृक्ष ) के, कुसुम = फूलोंकी, सौरभसेवन = सुगन्धके आस्वादनसे, संपूर्णसकलकामस्य = पूर्ण हो गये हैं सारे मनोरथ जिसके ऐसे । भ्रमरस्य = भौंरेका । इयं = यह । पुष्पान्तरसेवा = दूसरे पुष्पोंपर जाना। महती विडम्बना = बड़ा हास्यास्पद है ! . टीका-अमराणां = देवानां तरवः = वृक्षाः, कल्पवृक्षा इत्यर्थः । तेषां कुसुमानि = पुष्पाणि, तेषां सौरभः = सौगन्ध्यं तस्य सेवनेन = आस्वादनेन सम्पूर्णाः = सिद्धप्रायाः सकलाः = निखिलाः कामाः = मनोरथाः यस्य सः, तस्य-विहितसर्वातिशायिसुगन्धोपभोगस्येत्यर्थः । भ्रमरस्य For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy