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भामिनी-विलास
निश्चित है कि १६०५ ई० से १६५८ तक पंडितराजके पांडित्यकी यशःपताका प्रौढ़रूपमें फहराई। इसके साथ ही यह भी विचारणीय है कि उस कालके दो दिग्गज विद्वानों-भट्टोजिदीक्षित और अप्पयदीक्षितका पंडितराजने जमकर खण्डन किया है। अप्पयदीक्षित १६५० ई० तक जीवित थे । श्री विश्वेश्वर पाण्डेयजीने, जो कि पंडितराजके बाद अन्तिम प्रौढ़ आलंकारिक हुए हैं, अपने अलंकारकौस्तुभ नामक ग्रन्थमें पंडितराजके सिद्धान्तोंका प्रचुर समर्थन किया है। श्रीविश्वेश्वरजी सत्रहवीं शतीके उत्तरार्द्ध में हुए हैं। उनकी की हुई रसमंजरी टीकाकी एक प्रति, जो कि उनके पुत्र जयकृष्ण द्वारा लिखी गयी है, शाके १६३० (१७०८ ई० ) की उपलब्ध हुई है। ___ इन सब प्रमाणोंके आधारपर हम "पंडितराज-काव्यसंग्रह" के संपादककी इस उक्तिका समर्थन करते हैं कि पंडितराजका जन्म अनुमानतः १५९० ई० में हुआ, उनकी मृत्यु १६७० ई० के लगभग हुई और ८० वर्षकी दीर्घ आयुका उन्होंने उपभोग किया। किंवदन्तियाँ
पण्डितराजके विषयमें कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । एकके अनुसार जब ये काशीमें पढ़ते थे तभी जयपुर-नरेश जयसिंह काशी आये । इनकी प्रखर बुद्धिसे वे अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने मुसलमान काजियोंके उन दो प्रश्नोंका उत्तर देने के लिये इन्हें उपयुक्त समझा, १. १६५६ में काशीके मुक्तिमंडपमें सभा हुई जिसमें महाराष्ट्र देवर्षि
( देवरुखे ) ब्राह्मणोंको पंक्तिपावन सिद्ध किया गया और इस व्यवस्था-पत्रपर अप्पयदीक्षितके हस्ताक्षर हैं, जो उस समय पंचद्राविड़ सभाके जातीय सरपंच थे।
( देखिये पिंपुटकरका "चितले भट्ट प्रकरण")
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