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अन्योक्तिविलासः ___ भावार्थ-हे मालती ! मधुर गुञ्जन करनेवाले इस भ्रमरके विषयों तुम मौन न रहना; अर्थात् यह रस ग्रहण करने आवे तो देनेमें संकोच न करना। क्योंकि दाताओंमें श्रेष्ठ कल्पवृक्ष भी आदरपूर्वक इसे मस्तकपर वहन करते हैं।
टिप्पणी-इस अन्योक्ति द्वारा मालतीको चेतावनी देते हुए भ्रमरका रूपक देकर कविने अपना महत्त्व सूचित किया है। हे मालती ! “सम्भवतः इसे अन्यत्र कहीं रस-प्राप्ति नहीं होती इसलिये मेरे पास आया है" ऐसा भ्रमरके विषयमें भूलकर भी मत सोचना। यह तो इतना महत्त्वशाली है कि, संसार जिनकी चाह करता है वे कल्पवृक्ष भी आदरपूर्वक अपने मस्तकपर ( शिखरस्थानीय फूलोंपर ) बैठाकर इससे रस ग्रहण करवाते हैं । वदान्य शब्दका अर्थ है-माँगनेवालेकी इच्छासे भी अधिक देनेवाला। ( वद + अन्य = और माँगो और माँगो, कहनेवाला )। तुलना०-रघुवंश ५।२४-“गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे माभत परीवादनवावतारः" । मालति ! यह स्त्रीलिंगका सम्बोधन उसकी अल्पज्ञता और अविवेकिताका द्योतक है ।
इस पद्यमें मौन और शिरःपद लक्षणया श्लेष अलंकार को व्यक्त करते हैं । आर्या छन्द है ( लक्षण श्लो० ५ ) ॥१८॥ गुणवान्को विवेकी भी होना चाहिये-- यैस्त्वं गुणगणवानपि सतां द्विजिह्वरसेव्यतां नीतः। तानपि वहसि पटीरज किं कथयामस्त्वदीयमौनत्यम् ॥१६॥
अन्वय-पटीरज ! गुणगणवान् , अपि, त्वं, यैः, द्विजिह्वः, असेव्यतां, नीतः, तान् , अपि, वहसि, त्वदीयम् , औन्नत्यं, किं, कथयामः।
शब्दार्थ-पटीरज = हे चन्दन ! गुणगणवान् अपि-गुणसम्पन्न होनेपर भी । त्वं = तुम । यैः द्विजिह्वः = जिन सर्पोके कारण । असेव्यतां
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