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अन्योक्तिविलासः है, महान्की महत्ता ही इसमें है कि वह अपकारीका भी उपकार करे । इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। तुलना०-उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः ।
अपकारिषु यः साधुः स साधुः सद्भिरुच्यते ॥ निरन्तर विष उगलनेवाले भुजंगोंको भी अपनी मनोहर सुगन्धसे पुष्ट करता है इसलिये मलयजकी महिमा अवर्णनीय है। "भुजङ्गः खलसर्पयोः” इस कोषके अनुसार व्यक्तिके पक्षमें निन्दा करनेवाले दुर्जनोंका भी तुम पोषण करते हो, यह अर्थ व्यक्त होता है।
फणी कहनेसे स्पष्ट है कि उनका आटोप ही भयंकर है और विषवमन उनके स्वभावको व्यक्त करता है। उनसे गुणग्राहकता या किसीके उपकारकी आशा ही नहीं की जा सकती। यह भी परिकर अलंकार है । आर्याछन्द है ( लक्षण दे० श्लो० ५ ) ॥१०॥ महान् व्यक्ति अपकारीका भी उपकार करते हैंपाटीर तव पटीयान् कः परिपाटीमिमामुरीकर्तुम् । यत्पिषतामपि नृणां पिष्टोऽपि तनोषि परिमलैः पुष्टिम् ॥११॥
अन्वय-पाटीर ! तव, इमां, परिपाटीम् , उरीकर्तुं, कः, पटीयान , यत् , पिष्टः, अपि, पिषताम् , अपि, नृणां, परिमलैः, पुष्टि, तनोषि । __ शब्दार्थ-पाटीर = हे मलयज ( चन्दन ) । तव = तुम्हारी । इमां = इस । परिपाटी = पद्धतिको । उरीकर्तु = स्वीकार करनेमें । कः पटीयान् = कौन निपुण है । यत् = जोकि ( तुम )। पिष्टः अपि = पीसे (घिसे ) जाते हुए भी। पिषतां = पीसनेवाले । नृणां = मनुष्योंकी । परिमलोद्गारैः = सुगन्ध बखेरकर । पुष्टि तनोषि = पुष्टिको बढ़ाते हो।
टीका=पटीरो मलयाचलः, तत्र भवः, तत्सम्बुद्धौ हे पाटीर-मलयज !
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