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अन्योक्तिविलासः हैं। यहां फल-फूलोंके भारसे झुके हुए वृक्षोंमें भौंरोंकी स्तुति सुनकर झुके हैं ऐसी संभावना की गई है अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है । प्रहर्षिणी
मृतस्य लिप्सा कृपणस्य दित्सा विमार्गगायाश्च रुचिः स्वकान्ते। सर्पस्य शान्तिः कुटिलस्य मैत्री विधातृसृष्टौ नहि दृष्टपूर्वा ॥१८॥
अर्थ मरे हुए व्यक्तिको किसी प्रकारको चाह, कंजूसको दान करनेकी इच्छा, व्यभिचारिणी स्त्रीको पतिपर स्नेह, सर्पको शान्ति और दुर्जनकी मित्रता विधाताकी सृष्टिमें तो आजतक नहीं देखी गई । - टिप्पणी-तात्पर्य यह है कि दुर्जनसे मित्रता वैसे ही असम्भव है जैसे मुर्देका कुछ चाहना आदि । 'नहि दृष्टपूर्वा' यह एक क्रिया सब अर्थोको समान रूपसे प्रकाशित करती है अतः दीपक अलंकार है। उपेन्द्रवज्रा छन्द है।
उत्तमानामपि स्त्रीणां विश्वासो नैव विद्यतेन ।
राजप्रियाः कैरविण्यो रमन्ते मधुपैः सह ॥१९॥ अर्थ-उत्तम स्त्रियोंका भी विश्वास नहीं किया जा सकता । राज. प्रिया ( चन्द्रमाकी प्रिया ) कुमुदिनियाँ भौंरोंके साथ विहार कर रही हैं ।
टिप्पणी-चन्द्रमा द्विजराज कहा जाता है । कुमुदिनी चन्द्रोदय होनेपर ही खिलती है अत: चन्द्रप्रिया कहलाती है । यहाँ राजप्रिया कहनेसे उसकी उत्तमता व्यक्त की है। वह राजदारा होकर भी काले-कलूटे और चञ्चल भौंरेसे विहार कर रही है, यह ध्वनि निकलती है । अर्थान्तरन्यास अलंकार है । अनुष्टुप् छन्द ॥
अयाचितः सुखं दत्ते याचितश्च न यच्छति । सर्वस्वं चापि हरते विधिरुच्छृङ्खलो नृणाम् ॥२०॥
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