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भामिनी-विलासे पंकैर्विना सरो भाति सदः खलजनैर्विना।
कटुवर्णविना काव्यं मानसं विषयैर्विना ॥९॥ अर्थ-तालाब तभी अच्छा लगता है जब उसमें पङ्क (कीचड़सेवाल आदि ) न हो, सभा तभी अच्छी है जब उसमें दुर्जन न हो, काव्य वही अच्छा है जो कठोर वर्गोंसे रहित हो और मन तभी शोभित होता है जब विषयोंपर आसक्ति न हो ॥ ९ ॥
तत्त्वं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि ।
मार्मिकः को मरन्दानामन्तरेण मधुव्रतम् ॥१०॥ अर्थ-काव्यके किसी मार्मिक तत्त्वको संसारमें बिरला ही व्यक्ति समझता है । भौरेको छोड़ कर दूसरा कौन मकरन्द ( फुपपराग ) के मर्मको समझ सकता है ? ॥ १० ॥
सरजस्कां पाण्डुवर्णा कण्टकप्रकरान्विताम् ।
केतकी सेवसे हन्त कथं रोलम्ब निस्लप ॥११॥ अर्थ-हे निर्लज्ज भ्रमर ! सरजस्का ( रजः = धूलिपरागसे युक्ति), पाण्डुवर्णा (पीली-पीली) और काँटोंसे घिरी केतकीका सेवन कैसे करते हो ?
टिप्पणी-इस अप्रस्तुत भ्रमरके वृत्तान्तसे प्रस्तुत किसी ऐसे कामी पुरुषकी प्रतीति होती है जो रजस्वला स्त्रीपर आसक्त है। इस पक्षमें सरजस्काका अर्थ है ऋतुमती, पाण्ड्डवर्णां = फीके चेहरेवाली और कंटकप्रकारान्विताम् = रोमांचित ॥ ११ ॥
यथा तानं विना रागो यथा मानं विना नृपः ।
यथा दानं विना हस्ती तथा ज्ञानं विना यतिः ॥१२॥ अर्थ-जैसे तान ( सुर ) के बिना राग अच्छा नहीं होता, जैसे मान ( आदर ) के बिना राजा और दान ( मदजल) के बिना हाथी शोभित
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