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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ भामिनी विलासे शीघ्रम् । उत्पतितुम् = उत्फालयितुं । मातुः = जनन्याः । अंके = क्रोडे । अङ्गानि = अवयवान् । अतिभृशम् = अत्यन्तं । आकुञ्च्य संकोचयित्वा । लीयते = लीनो भवति । कृतौ पण्डितराजस्य श्रीजनार्दनशा स्त्रिया । कृता प्रास्ताविके पूर्णा, टीकेयं "सुषमा "भिधा ॥ भावार्थ -अभी कल अर्द्धरात्रिमें ही उत्पन्न हुआ सिंहशावक थोड़ी भी मेघगर्जनाको सुनकर, ऊपर उछलनेके लिये, माँकी गोदम अपने अङ्गोंको इस प्रकार सिकोड़ता है कि छिप जैसा गया है । टिप्पणी- "तेजस्वी व्यक्ति जन्मसे ही दूसरोंके उत्कर्षको सहन नहीं करता " यह इस श्लोकका भाव है । निशार्धजातः का अर्थ है पिछली आधीरातको ही जो पैदा हुआ है अर्थात् जिसकी अवस्था अभी केवल आधे ही दिनकी हुई है । एक दिन ( २४ घंटा ) भी जिसे पैदा हुए न हुआ, वह सिंह - शावक बादलोंकी गर्जना सुनकर उनपर आक्रमण करनेके लिये उछलने की चेष्टा कर रहा है । मातुः अङ्के लीयते का तात्पर्य है कि जब वह उछलनेकी चेष्टा करनेमें अपने शरीरको सिकोड़ता है तो अत्यन्त छोटा होनेसे माँकी देहसे चिपका हुआ अलग प्रतीत ही नहीं होता । इसी पद्यके भावको ५८, ५९ श्लोकमें भी कह आये हैं । यहाँ सिंह शिशुके स्वभावका यथावत् वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है । लक्षण – स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् ( काव्यप्रकाश ) । गीति छन्द है ।। १०१ ॥ [ पंडितराजके प्रास्ताविक विलास में १०१ ही श्लोक हैं ( देखिये भूमिका ) । किन्तु कुछ प्रतियोंमें जो अधिक श्लोक संगृहीत किये गये हैं, वे भी पाठकों की जानकारीके लिये सामान्य अर्थके साथ नोचे दिये जा रहे हैं- ] For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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