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अन्योक्तिविलासः
१२१ इतर पण्डितोंकी तुच्छताको व्यक्त किया है । वास्तवमें दो-चार शब्द इधरउधरके लेकर कोई पण्डितम्मन्य किसी ऐसे विद्वान्से, जिसने सरस्वती समाराधनामें जीवन बिताया है, टक्कर लेने चले तो यह ऐसी ही मूर्खता होगी जैसी कि सर्प, हाथी व सिंहके मस्तकोंपर पैर रखनेकी मूर्खता क्रमशः पक्षी, शश और सियार करने लगें। तुलना०-"हठादाकृष्टानां कतिपयपदानां रचयिता,
जनः स्पर्द्धालुश्चेदहह कविना वश्यवचसा । भवेदद्य श्वो वा किमिह बहुना पापिनि कलौ,
घटानां निर्मातुस्त्रिभुवनविधातुश्च कलहः ॥" इस पद्यको पण्डितराजने रसगंगाधरमें अर्थापत्ति अलंकारके उदाहरणमें रक्खा है, अर्थापत्तिका लक्षण है-“केनचिदर्थेन तुल्यन्यायत्वादर्थान्तरस्यापत्तिरर्थापत्तिः" अर्थात् किसी अर्थ के साथ समानता होनेसे अर्थान्तरका आ पड़ना अर्थापत्ति कहलाती है। यहाँपर भी प्रकृत महापण्डितोंके सामने अल्पज्ञोंका बड़बड़ाना, अप्रकृत शेरके मस्तकपर कुत्तोंके लात मारने आदिके समान ही है। शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥७॥ गुरुजनोंकी फटकार भी कल्याणकारिणी होती हैगीर्भिर्गुरूणां परुषाक्षराभि
स्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम् । अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणां
न जातु मौलौ मणयो वसन्ति ॥७॥ अन्वय-गुरूणां, परुषाक्षराभिः, गीर्भिः, तिरस्कृताः, नराः, महत्त्वं, यान्ति, अलब्धशाणोत्कषणाः, मणयः, जातु, नृपाणां, मौलौ, न, वसन्ति ।
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