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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः १०७ उसे ही यह पी जाता है। दूसरे शब्दोंमें, इसे खून चूस जानेवाला शोषक कह सकते हैं। ___"ऐसे सर्वस्वहारी शत्रुसे भी स्नेह करते हो अतः महान् हो" ऐसी व्याजस्तुतिकी कल्पना यहाँ हो सकती है; किन्तु जोर देकर कहा जाने योग्य किम् शब्द, उसकी अपेक्षा उक्त गुणोंको निष्फलताकी ओर ही अधिक झुकाता है अतः प्रतीप अलंकार है। शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥६१॥ बली शत्रुकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये लीलामुकुलितनयनं किं सुखशयनं समातनुषे । परिणामविषमहरिणा करिनायक वर्द्धते वैरम् ॥६२॥ अन्वय-करिनायक ! लीलामुकुलितनयनं, सुखशयनं, किं, समातनुपे, परिणामविषमहरिणा, वैरं, वर्द्धते । शब्दार्थ-करिनायक = हे गजराज ! लीलामुकुलितनयनं = आरामसे मुंदी हैं आखें जिसमें ऐसे । सुखशयनं = सुखकी नोंद । किं समातनुषे = क्या ले रहे हो। परिणामविषमहरिणा = अन्तमें कठोर जो सिंह उससे । वैरम् = वैर । वर्द्धते = बढ़ रहा है। टीका-करिनायक = गजश्रेष्ठ ! लीलया मुकुलिते = संकुचिते नयने = लोचने यस्मिन् तत् । एवंभूतं सुखशयनं = सुखपूर्वकं शयनं आनन्दनिद्रामितियावत् । किं = किमर्थ । समातनुषे = वर्द्धयसि । यतः परिणामे=फले (परिणमनम्, परि + /णम् प्रह्वत्वे + घञ्) विषमः= दुर्जयः यो हरिः = सिंहः तेन । इति सहार्थे तृतीया । वैरं = द्वेषः वद्धते = वृद्धि याति । भावार्थ-हे गजेन्द्र ! आँखें मूंदकर सुखकी नींद क्या ले रहे हो ( क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि ) तुम्हें नष्ट कर देनेवाले सिंहसे वैर बढ़ रहा है। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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