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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः ९९ कर उसके सामने नया प्राणसंकट उपस्थित कर दिया जिससे वह कल्पनाजन्य सुखको ही क्या, बन्धनजन्य दुःखको भी भूल गया । तुलना० - रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजालिः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ॥ इस पद्यको पंडितराजने रसगंगाधर में विषादन अलंकारके उदाहरणमें रक्खा है । और इसका लक्षण किया है - " अभीष्टार्थ - विरुद्धलाभो विषादनम् ” अर्थात् जहाँ अभीष्ट प्राप्ति के लिये प्रयत्न न करके केवल इच्छा ही की जाय और फल उल्टा हो जाय वहाँ विषादन अलंकार होता है । शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥५६॥ किसी कार्य में प्रवृत्त होनेसे पहले अपनी सामर्थ्य देख लेनी चाहिये - रे चाञ्चल्यजुषो मृगाः श्रितनगाः कल्लोलमालाकुलामेतामम्बुधिकामिनीं व्यवसिताः संगाहितुं वा कथम् अत्रैवोच्छलदम्बुनिर्भरमहावर्तैः समावर्तितो यद्ग्रावेव रसातलं पुनरसौ नीतो गजग्रामणीः ॥५७॥ अन्वय—श्रितनगाः, चावल्यजुषः, रे मृगाः, कल्लोलमालाकुलाम्, एताम्, अम्बुधिकामिनीं, संगाहितुं, कथं, वा, व्यवसिताः यत्, अत्रैव, उच्छलदम्बुनिर्भर महावतैः समावर्तितः, असौ, गजग्रामणीः, पुनः प्रावा इव, रसातलं, नीतः । शब्दार्थ — श्रितनगाः=पहाड़पर रहनेवाले । चाञ्चल्यजुषः = चञ्चलस्वभाववाले । रे मृगाः = अरे मृगो ! कल्लोलमालाकुलाम् = लहरोंकी पंक्तियोंसे व्याप्त । एतां = इस । अम्बुधिकामिनीं = समुद्रपत्नी ( नदी ) की । संगाहितुं = थाह लेनेके लिए | कथं वा किस प्रकार । व्यवसिताः - प्रवृत्त हुए हो । यत् = क्योंकि । अत्रैव = यहीँपर । उच्छलदम्बु = For Private and Personal Use Only =
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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