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पण्डितराज जगन्नाथ आनन्दवर्धनाचार्य, जिनको कि ये अत्यन्त सम्मानकी दृष्टि से देखते हैं, उनके मतोंकी भी यथासमय आलोचना करनेमें ये चूके नहीं हैं। पाण्डित्य और विवेचनकी दृष्टिसे इनकी गर्वोक्ति सर्वांशमें मिथ्या नहीं है और इस विषयमें ये भवभूतिसे बहुत आगे बढ़े हुए हैं। कहीं-कहीं तो इनकी यह गर्वोक्ति औद्धत्यसी प्रतीत होती है । भट्टोजिदीक्षितको प्रौढ़मनोरमाका खण्डनकर इन्होंने उसका नाम रक्खा है "मनोरमाकुचमर्दन"। भामिनीविलासके अन्तमें ये कहते हैं-दुष्ट रंडापुत्र मेरे पद्योंको चुरा न लें इस शंकासे मैंने यह पद्योंकी मंजूषा (पेटी ) बना डाली है।'
पण्डितराजकी अन्तिम अवस्था सुखमय नहीं प्रतीत होती । ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँगीरके राज्यकालमें मुगलदरबारमें इनका प्रवेश हुआ; किन्तु ये वहाँ स्थायी नहीं हो पाये और जहाँगीरकी मृत्युके उपरान्त ही ये उदयपुरके राणा जगत्सिंहके दरबार में रहने लगे जहाँ इन्होंने जगदाभरणकी रचना की। जब शाहजहाँ सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने इन्हें फिर दिल्ली बुला लिया । शाहजहाँका राज्यकाल पण्डितराजका भी अत्यन्त अभ्युदय और ऐश्वर्यका काल रहा। शाहजहाँकी मृत्युके पूर्व ही ये पुनः दिल्ली छोड़कर कामरूपेश्वर प्राणनारायणके यहाँ चले गये। कहते हैं कि शाहजहाँके ज्येष्ठपुत्र दारासे इनकी अत्यन्त घनिष्टता थी। क्योंकि दारा संस्कृत भाषा, हिन्दूधर्म तथा वेदान्त दर्शन पर अत्यन्त आस्था रखता था। संभव है कि दाराकी इस हिन्दूपरकताका कारण पण्डितराजको समझा गया हो और कट्टर मुल्लाओंके प्रपंचोंके कारण उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी हो। सम्राट्की छत्रछायामें अपार वैभवका उपभोग करते हुए विलक्षण प्रतिभाशाली पण्डितराजसे तत्कालीन पण्डित द्वेष करते थे अतः म्लेच्छ-संसर्गमें रहनेके कारण पण्डितोंने इनका तिर१. दुर्वृत्ता जारजन्मानो हरिष्यन्तीति शंकया ।
मदीयपद्यरत्नानां मञ्जूषैषा मया कृता ।। ( भामिनी० )
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