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भन्योक्तिविलासः
शब्दार्थ-करिणाम् = हाथियोंके । अरिणा = शत्रु । हरिणा = सिंहद्वारा। जठरज्वलनज्वलता = पेटकी अग्नि ( भूख ) से जलते ( संतप्त होते ) हुए भी। अपगतशङ्कं = निःशंक होकर । पुरः समागता = सामने आई हुई। हरिणाली हरिणोंकी पंक्ति । कथं नु=कैसे । हन्यताम् = मारी जाय । ___टोका-करिणां = कुञ्जराणां ( कुजरो वार णः करी-अमरः) । अरिणा=रिपुणा । हरिणा = सिंहेन । जठरस्य=उदरस्य ज्वलनेन = वह्निना ज्वलतीति जठरज्वलनज्वलन् तेन क्षुधया अत्यन्तं परितप्यता। अपि । अपगतशङ्कम् अपगता=दूरीभूता शङ्का = सन्देहो यस्मिन् कर्मणि तद्यथास्यात्तथा निःशङ्कमित्यर्थः । पुरः अग्रतः । समागता = समायाता अपि, नतु दैवात् प्राप्तेत्यर्थः। हरिणानां = मृगाणाम् आली = पंक्तिः । कथं नुकथमिव । हन्यतां = वध्येत ।
भावार्थ-बड़े-बड़े गजेन्द्रोंपर हाथ साफ करनेवाला मृगेन्द्र भूखकी ज्वालासे भलेही जल रहा हो; किन्तु निःशङ्क होकर सामने आई हुई भी हरिणपंक्तिको कैसे मारेगा?
टिप्पणी-महान्की महत्ता इसीमें है कि बड़ीसे बड़ी विपत्ति आने पर भी वह अपने स्वरूपकी रक्षा कर सके, इसी भावको कविने इस अन्योक्ति द्वारा प्रकट किया है। बड़े-बड़े गजेन्द्रोंको मारनेवाला सिंह उदरज्वालाकी क्षणिक शान्तिके लिये हरिणपंक्तिपर हाथ नहीं उठा सकता; क्योंकि यह उसके स्वरूपके अनुकूल नहीं है । तुलना०-"सर्वः कृच्छगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम्" प्रीति या वैर बराबर बलशालीसे ही शोभा देता है । 'हरिणाली' इस स्त्रीलिंग प्रयोगसे उसकी स्वतः अवध्यता व्यजित होती है। फिर वह तो निःशङ्क होकर उसके ( सिंहके ) सामने आती है। क्योंकि हरिणालीको उसकी महत्तापर विश्वास है कि वह क्षुधाकी व्याकुलतामें भी अपना विवेक नहीं खो सकता।
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