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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः टीकाकारोंने "गंगाकी तरंगोंको तुम्हें भंग न करना चाहिये" ऐसा अर्थ किया है; किन्तु हमारी समझसे यह कविभावनाके अनुरूप नहीं हैसामान्य विशेष भाव ही यहाँ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । इसमें अप्रस्तुत वर्षानदीसे प्रस्तुत किसी क्षुद्रव्यक्तिकी, जो कि अपने आश्रयदाताके प्रति अहंकार व्यक्त करता है, प्रतीति होती है अतः अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। प्रथमचरण उपेन्द्रवज्रा और द्वितीय चरण इन्द्रवज्रा होनेसे यह उपजाति छन्द है-अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।।४३॥ व्यक्तिकी परिस्थितिको समझना चाहियेपौलोमीपतिकानने विलसतां गीर्वाणभूमीरुहां येनाघ्रातसमुज्झितानि कुसुमान्याजघिरे निर्जरैः । तस्मिन्नध मधुव्रते विधिवशान्माध्वीकमाकांक्षति त्वं चेदश्चसि लोभमम्बुज ! तदा किं त्वां प्रति महे।।४४|| __ अन्वय-हे अम्बुज, पौलोमीपतिकानने, विलसतां, गीर्वाणभूमीरुहां, येन, आघ्रातसमुज्झितानि, कुसुमानि, आजधिरे, तस्मिन्, मधुव्रते, अद्य, विधिवशात्, माध्वीकम् , आकांक्षति, त्वं, लोभम् , अश्चसि, चेत्, तदा, त्वां, प्रति, किं ब्रमहे । शब्दार्थ-अम्बुज ! = हे कमल ! पौलीमीपतिकानने = शचीके पति (इन्द्र) के वन (नन्दन) में । विलसतां = विराजते हुए । गीर्वाणभूमीरहां = देवतरुओं ( कल्पवृक्षों ) के । येन = जिस ( भौंरे ) से। आघ्रातसमुज्झितानि = सूचकर छोड़े हुए। कुसुमानि = फूल। निर्जरैः = देवताओंसे । आजघ्रिरे = सूघे जाते हैं । तस्मिन् मधुव्रते = उस भौंरेके । अद्य = आज । विधिवशात् = भाग्यवश । माध्वीकम् = मधु ( पुष्परस )। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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