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अन्योक्तिविलासः चतुर्दिक । अङ्गाराणां = ज्वलदुल्मकानामिवातिदाहकातपानां यत् निकरं = समूहं तत् ( अङ्गार:-अङ्गति, अगि गतौ + आरन् ( उणादि: ), अथवा अङ्गमिति, अङ्ग + ऋ गतौ + अण् । निकरः-निकीयंते, नि + कृ विक्षेपे + अप् )। किरति = वर्षति सति । अकृशः कृशः संपद्यमानः भूतः इति कृशीभूतः = क्षीणकायः त्वम् । अहह इति आश्चर्ये । केषां = जनानां । ताम् = तृष्णां । परिहर्तासि = निवारयितासि । ___ भावार्थ-हे कासार ( झील ) ! जलरूप इतनी अपार सम्पत्ति होनेपर भी जब तुम प्यासोंकी पिपासा तत्काल नहीं बुझाते तो भला ग्रीष्ममें जब कि चारों ओर सूर्य की किरणें आग बरसाती होंगी, उस समय स्वयं क्षीण हुए तुम, किसकी प्यास बुझा सकोगे ?
टिप्पणी-कोई कितना ही ऐश्वर्यशाली हो, विपत्ति सबपर आती है और तब सम्पत्तिका नाश अवश्यम्भावी है। यह जब निश्चय ही है तो जिसने सम्पन्न होनेपर आतॊके आति निवारणमें अपनी सम्पत्तिका विनियोग नहीं किया वह स्वयं विपन्न होनेपर किसीकी सहायता कर सकेगा, यह कोई कैसे माने। इसी भावको कविने कासारकी इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है । ग्रीष्मके आगमन एवं सूर्य रश्मियों द्वारा आग बरसनेकी निश्चित सूचना देकर कासारको भयभीत करता हुआ कवि; मृत्यु या विपत्तियोंके निश्चित आगमनका भय दिखाकर धनमदान्धको सम्पत्तिका सदुपयोग करनेके लिये प्रेरित करता है कि ऐसी भयानक अवस्था आनेसे पूर्व ही तुम आर्तपरित्राणका यश लूट लो । यही तात्पर्य है।
इसमें भी लुप्तोपमा अलंकार है। शिखरिणी छन्द है ( लक्षण दे० श्लोक १) ॥४१॥ सम्पत्तिका अर्जन करने में भी विवेक आवश्यक है
अयि रोषमुरीकरोषि नो चेत्
किमपि त्वां प्रति वारिधे वदामः।
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