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3 सई निसामेत्ता तहेब सव्वं भाणियब्वं जाव अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि-II देवलोएमु णं देवाणं जहन्नेणं वस वाससहस्साइ ठिती पण्णता, तेण पर समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्को
य सेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठित्ती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य।
उद्देशार ॥१.१६॥
'. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे आलमिका नगरीथी अने शंखवन नामे चैत्यथी नीकळी बहारना देशोमां * १०१६ विचरे छे. [प्र०] ते काले-ते समये आलमिका नामे नगरी इती. वर्णन. त्यां शंखवन नामे चैत्य हतु. वर्णन. ते शंखवन चैत्यनी थोडे दूर पुद्गल नामे परिव्राजक रहेतो हतो. ते ऋग्वेद, यजुर्वेद अने यावत् बीजा ब्राह्मण संबन्धी नयोमा कुशल हतो. ते निरंतर
छ छट्टनो तप करवापूर्वक उंचा हाथ राखीने यावत् आतापना लेतोहतो. त्यार बाद ते पुद्गल परित्राजकने निरन्तर छ? छडुना तप । करवापूर्वक यावद् आतापना लेता प्रकृतिनी सरलताथी शिव परिव्राजकनी पेठे यावद् विभंग नामे ज्ञान उत्पन्न थयु, अने ते उत्पन्न
थयेला विभंगज्ञानवडे ब्रह्मलोककल्पमा रहेला देवोनी स्थिति जाणे छे अने जुए छे. पछी ते पुद्गल परिव्राजकने आवा प्रकारनो आ || संकल्प यावद् उत्पन्न थयो-'मने अतिशयवा; ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयुं छे, देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी
छे, अने पछी एक समय अधिक, वे समय अधिक, यावद् असंख्य समय अधिक करतां उत्कृष्टथी दस सागरोपमनी स्थिति कही छे.
त्यार पछी देवो अने देवलोको न्युच्छिन्न थाय -एम विचार करे छ, विचारीने आतापनाभूमिथी नीचे उतरी त्रिदंड, कुंडिका, IPL यावद् भगवा वस्त्रोने ग्रहण करी ज्या आलभिका नगरी छे, अने ज्यां तापसोना आश्रमो छे त्यां आवे छे, आवीने पोताना उपकरणो
मूकी आलमिका नगरीमां शृंगाटक, त्रिक, यावद् बीजा मार्गोमा एक वीजाने ए प्रमाणे कहे छे, याव प्ररूपेत् - 'हे देवानुप्रिय !
नानाASEKASH
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