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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥६६॥
१ शतके उद्देशः ५ ॥६६॥
बहमाणा किं कोहोवउत्ता, सत्तावीसं भंगा। एवं अणागारोवउत्तावि सत्तावीसं भंगा॥ एवं सत्तवि पुढविओ नेयवाओ, णाणत्तं लेसासु, गाहा-काऊ य वो तइयाइ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा| कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ १६ ।। (सू०४७) I [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीमा वसता नैरयिको शुं सम्यग्दृष्टि छ ? मिथ्यादृष्टि छ ? के सम्यग्मिध्यादृष्टि छ ? [३०] हे गौतम ! तेओ त्रणे प्रकारना छे ? [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा बसता अने सम्यग्दर्शनमां वर्तता रयिको
शु क्रोधोपयुक्त छे ! [३०] हे गौतम - अहीं सत्तावीश भांगा कहेवा. अने ए प्रमाणे मिथ्यादर्शन तथा सम्यग् मिथ्यादर्शनमा ४ा ऐसी भांगा कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पथिवीमां वसता जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओ
ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण के. जेओ ज्ञानी छे तेओने त्रण ज्ञान नियमपूर्वक होय छे अने जेओ अज्ञानी छे तेओने त्रण अज्ञान भजनापूर्वक होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा रहेता अने आभिनियोधिक ज्ञानमा वर्तता नैरयिको शुं क्रोधोप
युक्त छे ? [उ०] हे गौतम ! अहीं सत्तावीश भांगा जाणवा. अने ए प्रमाणे त्रण ज्ञान तथा त्रण अज्ञान कहेवां-जाणवां [प्र०] हे। 4 भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा रहेनारा नैरयिको शुं मनोयोगी छे ! वचनयोगी छ ? के काययोगी छ ? [उ०] हे गौतम ! नओ।
प्रत्येक त्रण प्रकारना छ [म०] हे भगवन्! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा रहेनारा अने यावत्-मनोयोगमा वर्तता जीवो शुं क्रोधोपयुक्त छे ? [उ०] हे गौतम ! अहीं २७ मांगा जाणवा. अने ए प्रमाणे वचनयोगमा तथा काययोगमा कहे. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा रहेनारा नैरयिको शुं साकारोपयुक्त के अनाकारोपयुक्त छे ! [३०] हे गौतम ! तेओ साकारोपयुक्त पण छे अने अना
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