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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ११ ॥
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प्रमाणे वेदे छे, निर्जरे छे (सू० १४)
नेरइयाणं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं बंधंति अचलियं कम्मं बंधंति ? गोयमा ! जो चलिये कम्मं बंधंति, अचलियं कम्मं बंधंति १ । नेरइयाणं भंते! जीवाओ किं चलिये कम्मं उदीरेति अचलियं कम्मं उदीरेंति?, गोयमा ! नो चलिये कम्मं उदीरेति, अचलियं कम्मं उदीरेति २ । एवं वेदेति ३ उयोंति ४ संकार्मेति ५ निहसेंति ६ निकार्येति ७, सन्वेसु अचलियं, नो चलियं । नेरइयाणं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं निज्जति ८, गाहा—बंधोदयवेदोपसंकमे तह निहत्तणनिकाये | अचलियं कम्मं तु भवे चलिये जीवाड निजार || ५ || (सू० १५ )
अर्थ : - ( प्र०) हे भगवन्! शुं नैरथिको जीवप्रदेशथी चलित कर्मने बांधे छे ? अथवा अचलित कर्मने बांधे के १ ( उ० ) हे गौतम! चलित कर्मने बांधता नथी, पण अचलित कर्मने बांधे ले ? (प्र०) हे भगवन् ! नैरयिको शुं जीवप्रदेशथी चलित कर्मने उदीरे छे ? अथवा अचलित कर्मने उदीरे छे. ? (उ०) हे गौतम ! चलित कर्मने उदीरता नथी पण अचलित कर्मने उदीरे छे, ए प्रमाणे वेदन करे छे, अपवर्तन करे छे, संक्रमण करे छे. निधच करे छे अने निकाचित करे छे ए सर्व पदोमां अचलितने योजं पण चलितने योजयुं नहीं. (प्र०) हे भगवन् ! शुं नैरयिको जीवप्रदेशथी चलित कर्मने निर्जरे के ? के अचलिप्त कर्मने निर्जरे छे ? (उ०) हे गौतम! चलितकर्मने निर्जरा करे छे, पण अचलित कर्मनी निर्जरा करता नथी. गाथार्थः- बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निवचन अने निकाचनने विषे अचलित कर्म होय अने निर्जराने विषे तो जीवधी चालेलं होय ( सू० १५ )
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९ शतके उद्देशः १
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