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(९३२)
अष्टाङ्गहृदयेवातव्याधिविनिर्दिष्टान्नेहान्भग्नस्य योजयेत् ॥
चतुःप्रयोगान्बल्यांश्च बस्तिकर्म च शीलयेत् ॥ ३३ ॥ वातव्याधिमें कहेहुये और बलमें हित स्नेहोंको पान नस्य मालिश अनुवासनके द्वारा भग्न रोगीके योजितकरै, और बस्तिकर्मका अभ्यासकरै ॥ ३३॥
शाल्याज्यरसदुग्धाद्यैः पैष्टिकैरविदाहिभिः॥ मात्रयोपचरेद्भग्नं सन्धिसंश्लेषकारिभिः ॥ ३४॥
ग्लानिर्न शस्यते तस्य सन्धिविश्लेषकृद्धि सा॥ पुष्टिको करनेवाले और दाहसे वर्जित शालिचावल घृत दूध मांसके रस आदिसे मात्राके द्वारा भग्नरोगीको उपचरितकरै, ये सब संधिके मिलाप करनेवाले हैं ॥ ३४ ॥ भग्नरोगी की ग्लानि संधियोंको नहीं मिलनेदेतीहै ॥
लवणं कटुकं क्षारमम्लं मैथुनमातपम् ॥ व्यायामं च न सेवेत भग्नो रूक्षं च भोजनम् ॥ ३५॥ और नमक कडुआ खटाई मैथुन घांम कसरत रूखाभोजन इन्होंको भग्नरोगी न सेवे ॥३५॥ कृष्णांस्तिलान्विरजसो दृढवस्त्रबद्धान्सप्तक्षपा वहति वारिणि वासयेत ॥ संशोषयेदनुदिनं प्रविसार्य चैतान्क्षीरे तथैव मधुकक्कथिते च तोये॥३६॥ पुनरपि पीतपयस्कांस्तान्पूर्ववदेव शोषितान्बाढम् ॥ विगततुषानरजस्कान्संचूर्ण्य सुचूर्णितैयुज्यात् ॥३७॥ नलदवालकलोहितयष्टिकानखमिशिप्लवकुष्ठबलात्रयैः॥ अगरुचन्दनकुंकुमसारिवासरलसर्जरसामरदारुभिः ॥ ३८॥ पद्मकादिगणोपेतैस्तिलपिष्टं ततश्च तत्॥समस्तगन्धभैषज्यसिद्धदुग्धेन पीडयेत् ॥३९॥ शैलेयरानांशुमतीकसेरुकालानुसारीनतपत्ररोधैः॥सक्षीरयुक्तैःसफ्यस्कदूर्वैस्तैलं पचेत्तन्नलदादिभिश्च ॥४०॥गन्धतैलमिदमुत्तममस्थिस्थैर्यकृज्जयति चाशु विकारान् ॥ वातपित्तजनितानतिवीर्या
न्व्यापिनोऽपि विविधैरुपयोगैः॥४१॥ __ धूलीसे रहित और दृढ वस्त्रमें बंधेहुये काले तिलोंको सातरात्रितक पानीमें वास करावे. परंतु नित्यप्रति शोषितकरके इन तिलोंको फरियाले करतारहै, ऐसेही दूधमें और मुलहटीके काथमें और पानीमें सात सात दिन करावे ॥ ३६ ॥ परंतु पहलेकी तरह नित्यप्रति शोषितकरके वस्त्रपै फरियाले करताहै, ऐसे तुष और धूलिसे रहितहुये तिन तिलोंको अच्छीतरह सुखाके चूर्णकर और चूर्णितकिये
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