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( ९२८ )
अष्टाङ्गहृदये
शब्दकी प्रकटता ||२|| यह भंगका लक्षण संक्षेपसे कहा, और भंगके भेदसे लक्षण बहुत प्रकार से भेदितकियागया है और तिस संपूर्ण भंगका साधन || ३ || जैसे उपयोग के अर्थहो तैसे उपदेश करेंगे ॥ प्राज्याणुदारि यत्त्वस्थिस्पर्शे शब्दं करोति यत् ॥४॥ यत्रास्थि लेशः प्रविशेन्मध्यमस्थो विदारितः ॥ भग्न यच्चाभिघातेन कि ञ्चिदेवावशेषितम् ॥ ५॥ उन्नम्यमानं क्षतवद्यच्च मज्जनिमज्जति ॥ तद्दुःसाध्यं कृशाशक्तवातलाल्पाशिनामपि ॥ ६ ॥
और प्रभूत तथा सूक्ष्म दारण विद्यमान हड्डी दुःसाध्यहै, और जो स्पर्श करनेमें शब्दको करै वह हड्डी दुःसाध्य है ॥ ४ ॥ जहां पाटितकिया अस्थिका लेश हड्डियों के मध्य में प्रवेशकरै वह दुःसाध्य है और जो कुछेक शेषरहजावे और चोट लगनेसे टूटी हुई हड्डी दुःसाध्य है || १ || और जो उन्नम्यमानकी क्षतके समान हो जाय वह हड्डी दुःसाध्य है और जो मज्जामें डूबजाये वह हड्डी दु:साध्यहै, और कृश अशक्त वातवाला और अल्पभोजन करनेवाले मनुष्यों की भी हड्डी दुःसाध्य है ॥ ६ ॥ भिन्नं कपालं यत्कटयां सन्धिमुक्तं च्युतं च यत् ॥ जघनं प्रतिपिष्टं च भग्नं यत्तद्विवर्जयेत् ॥ ७ ॥
कटिप्रदेशमें जो कपालसंज्ञक हड्डी विदारित होजावे, और जो हड्डी संधिसे छुटजावे, और जो जनस्थानके प्रति पिष्ट होजावे, तथा टूटजावे, ऐसे हड्डीकी चिकित्सा नहीं होती ॥ ७ ॥ असंश्लिष्टकपालं च ललाटं चूर्णितं तथा ॥
यच्च भग्नं भवेच्छंख शिरःपृष्ठस्तनान्तरे ॥ ८ ॥
नहीं मिले हुये कपालको और चूर्णितहुये मस्तकको और कनपटी शिर पृष्ठभाग चूंची इन्होंके मध्यमें टूटी हुई हड्डीकी चिकित्सा नहीं होसकती ॥ ८ ॥
सम्यग्यमितमप्यस्थि दुर्व्यासाद्दुर्निबन्धनात् ॥ संक्षोभादपि यद्वच्छेद्विक्रियां तद्विवर्जयेत् ॥ ९ ॥ आदितो यच्च दुर्जातमस्थिसन्धिरथापि वा ॥
अच्छी प्रकार उद्धृत की हुई भी हड्डी बुरी तरह स्थापित करनेसे और बुरी तरह बंधन से संक्षोभ विकारको प्राप्त होवे तो वह हड्डी वर्जन योग्य है || ९ || जो आदिसेही अच्छी तरह नहीं उपजै वह हड्डी दुःसाध्य है, और जो हड्डीकी संधि अच्छी तरह नहीं उपजै वह दुःसाध्यहै | तरुणास्थीनि भुज्यन्ते भुज्यन्ते नलकानि तु ॥ १० ॥ कपालानि विभिद्यन्ते स्फुटन्त्यन्यानि भूयसा ॥
और तरुणसंज्ञक हड्डियां कुटिल होजाती हैं और नलकसंज्ञक हड्डी भंगको प्राप्त होती हैं ॥१०॥ कपालसंज्ञक हड्डी भेदित होती हैं और विशेषकरके अन्य हड्डी फूट जाती हैं । अथावनतमुन्नम्यमुन्नतं चावपीडयेत् ॥ ११ ॥ आञ्छेदति क्षिप्तमधोगतं चोपरि वर्त्तयेत् ॥
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