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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९२६) अष्टाङ्गहृदयेतृण रक्त पांशुसे लेपितहुये आंतको पानी से प्रक्षालित कर और घृतसे चुपड कटहुए नवौंबाला मनुष्य हौले हौले प्रवेशित करै ॥ ४४ ॥ क्षीरेणार्टीकृतं शुष्कं भूरिसर्पिःपरिप्लुतम् ॥ अङ्गुल्या प्रमृशेत्कपठं जलेनोद्वेजयेदपि॥४५॥तथान्त्राणि विशन्त्यन्तस्तत्कालं पीडयन्ति च ॥त्रणसौक्ष्म्याबहुत्वाद्वा कोष्ठमन्त्रमनाविशत् ॥ ॥४६ ॥ तत्प्रमाणेन जठरं पाटयित्वा प्रवेशयेत्॥ यथास्थानं स्थिते सम्यगंन्त्रे सीव्यदनुव्रणम्॥४७॥ स्थानादपेतमादत्ते जीवितंकुपितं च तत्॥वेष्टयित्वानुपट्टेन घृतेन परिषेचयेत्॥४८॥ पाययेत्तं ततः कोष्णं चित्रातैलयुतं पयः॥ मृदुक्रियार्थं शकृतो वायोश्चाधःप्रवृत्तये॥४९॥अनुवर्तेत वर्ष च यथोक्तां व्रणयन्त्रणाम्॥ दूधस गीलेकिये और बहुतसे घृतसे भिगोयेहुए और शुष्क कंठको अंगुलीसे प्रमार्शतक और पानीसे उद्वजितकरे ॥ ४५ ॥ घाबके सूक्ष्मपनेसे और बहुतपनेसे कोष्टमें आंत वहीं प्रवेश हो तौ ॥ ४६॥ तिसीके प्रमाण पेटको फाडके प्रवेशितकरै और स्थानके योग्य स्थितहुये अच्छीतरह मांतमें पाछे घावको सीमै ॥॥ ४७ ।। स्थानसे भ्रष्टहुआ आंत जीवितको हरताहै और कुपितहुए आंतको पाट ( वस्त्र से वेष्टितकर पीछे घृतसे सेचितकरै ॥ ४८ ।। पीछे तिस मनुष्यको कुछक गरमकिये और मजीठके तेलसे संयुक्त दूधका पान करावै. विष्टाकी कोमल क्रियाकं अर्थ और वायुकी नीचेकी प्रवृत्तिके अर्थ यह करें ॥ ४९ ॥ यथायोग्य कहीहुई व्रणयंत्रणाको एक वर्षत क वर्ते ॥ उदरान्मेदसो वर्ति निर्गतां भस्मना मृदा॥ ५० ॥ अवकीर्य कषायैर्वा श्लक्ष्णैर्मूलैस्ततः समम्॥ढं बद्धाच सूत्रेण वर्द्धयेत्कुशलो भिषक् ॥५१॥ तीक्ष्णेनाग्निप्रतप्तेन शस्त्रेण सकृदेव तु॥ स्यादन्यथा रुगाटोपो मृत्युर्वा छिद्यमानया ॥५२॥सक्षौद्रे च व्रणे बद्धे सुजीर्णेऽन्ने घृतं पिबेत् ॥क्षीरंवा शर्कराचित्रालाक्षा गोक्षुरकैःशृतम् ॥५३ ॥ रुग्दाहजित्सयष्टयाद्वैः परं पूर्वोदितो विधिः॥मेदोग्रन्थ्युदितं तत्र तैलमभ्यञ्जने हितम्॥५४॥ और पेटसे निकसीहुई मेदको वर्तिको भस्मसे अथवा मट्टीसे ।। ५० ॥ अथवा श्लक्ष्ण चूर्णास अथवा कषायोंस अथवा मुलोंसे अवकीरितकर पीछे समान और दृढकरके और सूत्रसे बांध कुशल वैद्य एकही वार बढावै ॥५१॥ परन्तु तीक्ष्णरूप और अग्निमें तपेहए शस्त्रसे और अन्यप्रकारसे कटी हुईसे पीडा तथा आटोप उपजताहै अथवा मृत्यु होजातीहै ।। ५२॥ शहदस बंधेहुये घावमें और जर्णिहुये अन्नमें घृतको पावै अथवा खांड मजीठ लाख गोखरू इन्होंसे पकायहुये दूधका पान कर ॥ ५३ ॥ यह दूध अथवा व्रत पीडाको और दाहको जीतताहै परन्तु इस घृतमें और दूधमें For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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