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अष्टाङ्गहृदयेअथवा इसी पूर्वोक्त काथमे ६४ तोले घृतको पकावै ॥ ४९ ॥ और चौगुना दूध मिलावै, और एक एक तोले प्रमाणसे इन औषधोका कल्क मिलावै, जीवंती त्रिफला मेदा मृद्वीकादिगण फालसा॥ ॥ ५० ॥ मजीठ चव्य भारंगी कंभारी काकडासींगी कौंच महामेदा तालीशपत्र खिजूर नागरमोथा ॥ ५१ ॥ कमलकी डंडी कमलकंद छुहारा मुलहटी जीवक शतावरी विदारीकंद ईख बडीकटेहली श्वेतअनंतमूल कालाअनंतमूल ॥५२॥ दूब गोखरू ऋषभक सिंघाडा कसेरू रायशण शालपर्णी भूमि आमला छोटी इलायची कचूर पोहकरमूल ॥ १३ ॥ शांठी वंशलोचन काकोली धमांसा मुलहटी अखरोट बदाम शंडाकी अथवा मदिराविशेष ॥ ५४ ॥ यह महामायूरघृत है गुणोंकरके पूर्वोक्त मायूरघतसे अधिक है, और धातुभ्रंश इन्द्रियभ्रंश स्वरभंश श्वास खांसी अर्दितवात इन्होंको नाशताहै ॥ ५५ ॥ और पैरारोग तथा वीर्यके दोषोंमें श्रेष्ठ है और वंध्या स्त्रीको पुत्र देता है ॥
आखुभिः कर्कटैहँसैः शशैश्चेति प्रकल्पयेत् ॥ ५६ ॥ और मूषों करके ककेरों करके, हंसों करके तथा खरगोसों करके घृतको प्रकल्पित करे॥६६॥
जर्द्धजानां व्याधीनामेकत्रिंशशतद्वयम् ॥
परस्परमसङ्कीर्णं विस्तरेण प्रकाशितम् ॥ ५७ ॥ हंसली स्थानके ऊपर २३१रोगहैं सो परस्पर असंकीर्णरूपहें सो विस्तारसे प्रकाशित किये॥१७॥
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुषं विदुः ॥
मूलप्रहारिणस्तस्माद्रोगाच्छीघ्रतरं जयेत् ॥ ५८॥ ऊपरको जडवाला और नीचेको शाखाओंवाला पुरुष मुनिजनोंने कहाहै इसकारण मूलको प्रहार करनेवाले रोगोंको शीघ्रतासे जीते ॥ ५८ ॥ .
सर्वेन्द्रियाणि येनास्मिन्प्राणा येन च संश्रिताः ॥
तेन तस्योत्तमाङ्गस्य रक्षायामाहतो भवेत् ॥ ५९॥ जिससे जिसमें इन्द्रिय और प्राणसंस्थित रहतेहैं, तिसी कारणसे शिरको रक्षामें मनुष्यको सदा आइत रहना उचितहै ॥ ५९॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपांडतरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
पञ्चविंशोऽध्यायः। अथातो व्रणविज्ञानीयप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर व्रणविज्ञानीयप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
व्रणो द्विधा निजागन्तुदुष्टशुद्धविभेदतः ॥ निजो दोषैः शरीरोत्थैरागन्तुर्बाह्यहेतुजः॥१॥
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