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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ८९७)
घरका धूमा रशोत पाठा सूंठ मिरच पीपल जवाखार चीता लोहा त्रिफला तेजबल इन्होंका शहद संयुक्त किया चूर्ण मुख दंत गलके विकार में धारित करना योग्य है ॥ १०० ॥ दार्वीत्वक्सिन्धुद्भवमनःशिलायावश्क हरितालैः ॥
धाः पीतक चूर्णो दन्तास्यगलामये समध्वाज्यः ॥ १०१ ॥ दारुहळदीकी छाल सेंधानमक मनशिल जवाखार हरताल केसर इन्होंका चूर्ण शहद और घृतसे संयुक्तकर दंत मुख गलके रोगों में धारित करना योग्य है ॥ १०१ ॥
द्विक्षार धूमवरापञ्चपटुव्योषवेल्लगिरिताक्ष्यैः ॥
गोमूत्रेण विपक्का गलामयन्नी रसक्रियैषा ॥ १०२ ॥
जत्राखार साजीखार घूमां त्रिफला पांचोंनमक सूंठ मिरच पीपल वायविडंग शिलाजीत रशोत इन्होंको गोमूत्रमें पकात्रै यह रसक्रिया गलके रोगोंको नाशती है ॥ १०२ ॥ गोमूत्रकथनविलीनविग्रहाणां पथ्यानां जलमिशिकुष्टभावितानाम् ॥ अत्तारं नरमणवोऽपिवक रोगाः श्रोतारं नृपमिव न स्पृशन्त्यनर्थाः १०३
गोमूत्रके काथकरके विलोडितकरी नेत्रवाला शोफ कूठमें भावितकरी हरडोंको खानेवाले मनुष्यको सूक्ष्मरूपभी मुखके रोग नहीं स्पर्श करते हैं जैसे श्रवण करतेहुये राजाको अनर्थ नहीं स्पर्श करते तैसे ॥ १०३ ॥
सप्तच्छदोशीरप टोलमुस्तहरीतकीतिक्तकरोहिणीभिः ॥ यष्टबाह्रराजद्रुमचन्दनैश्च काथं पिवेत्पाकहरं मुखस्य ॥ १०४॥
शातविण खस परवल नागरमोथा हरडै कुटकी मुलहटी अमलतास चंदन इन्होंके काथको पीवै यह मुखके पाकको हरता है ॥ १०४ ॥
पटोल शुण्ठीत्रिफला विशालात्रायन्तितिक्ताद्विनिशामृतानाम् ॥ पीतः कषायो मधुना निहन्ति मुखस्थितश्चास्यगदानशेषान् ॥ १०५॥
परवल सूंठ त्रिफलां इन्द्रायण त्रायमान कुटकी हल्दी दारुहळदी गिलोय इन्होंके काथमें शहद मिला पीत्रे तो मुखके सत्र रोग दुर होते हैं ॥ १०५ ॥
स्वरसः कथितो दायां घनीभूतः सगैरिकः ॥ आस्यस्थः समधुर्वक पाकनाडीव्रणापहः ॥ १०६ ॥
दारुहळदीका कथित हुआ करडा गेरू शहद से संयुक्त स्वरस मुखमें धारण किया जावे तो मुखपाक और नाडित्रणको दूरकरता है ॥ १०६ ॥
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