________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(८९०)
अष्टाङ्गहृदयेछेदयेन्मंडलाग्रेण नात्यग्रे न च मूलतः॥
छेदेऽत्यस्त्रक्क्षयान्मृत्युहीने व्याधिविवर्धते ॥४८॥ काकडीके बीजके सदृश और बढीहुई तथा विस्तृतहुई नाडियोंसे व्याप्त और जीभके अग्रभागमें प्राप्त और बडिशआदिसे अवलंबितको ॥ ४७ ॥ मंडलाग्रशस्त्रसे न तो अग्रभागमें न मूलमें छेदित करै और अत्यंत छेदमें रक्तके निकसनेसे मनुष्यकी मृत्यु होजातीहै, और हीनरूप छैदित कियेमें व्याधि बढती रहतीहै इससे मध्यमकरै ॥ ४८ ॥
मरिचातिविषापाठावचाकुष्ठकुटन्नटैः॥ छिन्नाया सपटुक्षौद्रैर्घर्षणं कवलः पुनः॥ ४९ ॥ कटुकातिविषापाठानिम्बरानावचाम्बुभिः॥
संघाते पुप्पुटे कूर्मे विलिख्यैवं समाचरेत् ॥ ५॥ मिरच अतीश पाठा वच कूठ सोनापाठा नमक शहद इन्होंकरके घर्षण तथा कवल ये दोनों छिन्नहुई जीभमें हितहैं ॥ ४९ ॥ कुटकी अतीश पाठा नींब रायशण वच नेत्रवाला इन्होंकरके घर्षको संघातमें पुप्पुट कच्छपमें लेखितकर आचारतकरे ॥ ५० ॥ - अपक्के तालुपाके तु कासीसक्षौद्रतायः ॥
घर्षणं कवलः शीतकषायमधुरौषधैः॥५१॥ नहीं पक्कहुये तालुपाकमें कसीस शहद रसोतसे घर्षण और शीत कषाय तथा मधुर औषधयोंसे कवलग्रहण हितहै ॥ ११ ॥
पक्केऽष्टापदवद्भिन्ने तीक्ष्णोष्णैः प्रतिसारणम् ॥
वृषनिम्बपटोलाद्यस्तिक्तैः कवलधारणम् ॥ ५२॥ पक्वहुये और अष्टापदकी समान भिन्नहुये तालुपाकमें तीक्ष्ण और गरम औषधोंसे प्रतिसारण करवावै और वासा नींब परवल आदि तिक्त औषधोंसे कवल अर्थात् ग्रासको धारै ॥ १२॥
तालुशोषे त्वतृष्णस्य सर्पिरुत्तरभक्तिकम् ॥ कणाशुण्ठीशृतं पानमम्लैगैण्डूषधारणम् ॥ ५३॥
धन्वमांसरसाः स्निग्धाः क्षीरसर्पिश्च नावनम् ॥ तालुशोषमें नहीं तृषावाले मनुष्यके अर्थ भोजनके उपरांत घृतका पान करवावै और पीपल तथा सूंठकरके पकायेहुये पानको पाँव और कांजीकरके कुलोंको धारै ॥ ५३ ॥ जांगलदेशके स्निग्धरूप मांसके रस और दूध घृतकरके नस्य करना ॥
कण्ठरोगेष्वसृङ्मोक्षस्तीक्ष्णैनस्यादि कर्म च ॥ ५४॥ और कंठरोगमें रक्तका निकालना और तीक्ष्ण औषधोंकरके नस्य कर्म ये हितहैं ॥ १४ ॥
For Private and Personal Use Only