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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८८७) क्रियायोगैर्बहुविधैरित्यशान्तरुजं भृशम्॥ दृढमप्युद्धरदन्तं पूर्वं मूलाद्विमोक्षितम् ॥ २३॥ सन्दंशकेन लघुना दन्तनिर्घातनेन वा ॥
तैलं सयष्टयाह्वरजो गण्डूषो मधुना ततः ॥ २४ ॥ जो बहुतसे क्रियाके योगोंसे पीडाकी शांति नहीं होवे तब पहले मूलसे छूटेहुये दृढदंतकोभी उखाडे ॥ २३ ॥ हलके चिमटेसे दंत निर्घातन कर पीछे मुलहटीके चूर्णसे संयुक्तकिये तेलको शहदके संग मुखमें धारणकरै ॥ २४ ॥
ततो विदारियष्टयाह्वशृङ्गाटककसेरुभिः॥
तैलं दशगुणक्षीरं सिद्धं युञ्जीत नावनम् ॥ २५॥ पीछे विदारीकंद मुलहटी सिंगाडा कसेरूके कल्कमें तेलसे दशगुणे दूधमें तेलको सिद्धकर नस्यको प्रयुक्तकरै ॥ २५ ॥
कृशदुर्बलवृद्धानां वातार्तानां च नोद्धरेत् ॥ नोद्धरेच्चोत्तरं दन्तं बहूपद्रवकृद्धि सः॥ २६ ॥
एषामप्युट्टतैः स्निग्धः स्वादुः शीतः क्रमो हितः॥ कृश दुर्बल वृद्ध वातसे पीडित मनुष्योंके दंतको नहीं उखाडै और ऊपरली पंक्तिके दंतको नहीं उखाडै, क्योंकि यह बहुतसे उपद्रवोंको करताहै ॥ २६ ॥ और इन मनुष्योंकेभी उखाडेहुये दंतमें स्निग्ध और स्वादु और शीतल क्रम हितहै ॥
विस्राविताने शीतादे सक्षौद्रैः प्रतिसारणम् ॥२७॥ मुस्तार्जनत्ववित्रफलाफलिनीतार्श्वनागरैः॥
तत्वाथः कवलो नस्यं तैलं मधुरसाधितम् ॥२८॥ विषकरके स्त्रावित किये शीतापरोगमें शहदसे संयुक्त किये वक्ष्यमाण औषधोंसे प्रतिसारण करै ॥ २७ ॥ नागरमोथा कौहवृक्षकी छाल त्रिफला कलहारी रसोत सूंठ इन्होंकरके अथवा इन्ही औषधोंके काथका कवल तथा मधुर औषधोंसे साधित किया तेल नस्यमें हितहै ॥ २८ ॥
दन्तमांसान्युपकुशे स्विन्नान्युष्णाम्बुधारणैः॥मण्डलायेण शाकादिपत्रैर्वावहुशो लिखेत्॥२९॥ततश्चप्रतिसा-णि घृतमण्ड मधुद्रुतैः॥लाक्षाप्रियंगुपत्तंगलवणोत्तमगैरिकैः॥३०॥सकुष्ठशुण्ठीमरिचयष्टीमधुरसांजनैः॥ सुखोष्णो घृतमण्डोऽनु तैलं वा कवलग्रहः॥ ३१ ॥धृतं च मधुरैः सिद्धं हितं कवलनस्ययोः॥
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